________________
नियमसार-प्रामृतम्
१३१ दर्शनेन निद्रानिद्रादयो गृह्यन्ते, लिंगग्रहणेन हास्यादयो नोकषायाः, गतिग्रहणेन सांघातिप्रकृत यश्च, तेन वेदनायायुगांत्रनामोदयकृताः सर्वे भावा गृह्यन्ते ।
अन्यच्यासाधारणपारिणामिकेषु जीवत्वं भव्यत्वमभव्यस्वच ।
चैतन्यभावो जीवत्वम्। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः । तविपरीतोऽभव्यः ।
____यदि इमे भावा जीवस्य स्वतत्त्वं, तहि यवायं आत्मा औपशमिकाविभावान् परित्यजति तदा शन्यो भवति स्वभावाभावात, अग्नेरौरुण्यस्वभावपरित्यागेऽभाववत् । यदि न त्यति तहि क्रोधादिस्वभावापरित्यागात् आत्मनोऽनिर्मोक्षप्रसंगः प्राप्नोति ? सन्न; कि कारणम् ? आवेशवचनात् अनादियारिणामिकचैतन्यद्रव्यार्थादेशात कयंचित स्वभावं न परित्यजति । आदिमदौदयिकादिपर्यायादेशात कथंचित् स्वभावं परित्य
यिक भाव होता है, ये इक्कीस भेद हैं। इसी औदयिक भाव में मिथ्यादर्शन से निद्रानिद्रा आदि लिये गये है, लिंग के ग्रहण से हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जगप्सा ये छहों कषायें आ जाती है और गति के ग्रहण से सर्व अघाति प्रकृतियाँ आ जाती हैं। अतः इसी से वेदनीय, आयु, गोत्र और नाम कर्म की सर्वप्रकृतियों से उत्पन्न हुये भाव ग्रहण कर लिये जाते हैं ।
अन्य द्रव्य में असाधारण ऐसा पारिणामिक भाव है । इसके तीन भेद हैंजीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ।
चैतन्यभाव जीवत्व है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र परिणाम से जो परिणत होवेंगे वे भव्य है, इनसे विपरीत अभव्य हैं ।
शंका--यदि ये भाव जीव के स्वतत्त्व हैं, तब तो यह आत्मा जब औपशमिक आदि भावों को छोड़ेगा तब शन्य हो जायेगा, क्योंकि उसके स्वभाव का अभाव हो जायेगा। जैसे कि अग्नि यदि उष्णस्वभाव को छोड़ देगी तो उसी का अभाव हो जायेगा। और यदि इन स्वभाव को आत्मा नहीं छोड़ता है तो क्रोध आदि स्वभाव को नहीं छोड़ने से आत्मा को कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा।
____समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि आदेश वचन है। अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से कथंचित् यह आत्मा स्वभाव को नहीं छोड़ता है और