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नियमसार-प्राभृतम् जति च, अतो नायं बोषोऽनेकांतवादिनः। अन्यच्च 'स्वभायपरित्यागापरित्यागाद्वा मोक्षः' इति न मन्यामहे । कि तहि ? अष्टतयकर्मपरिणामवशीकृतस्यात्मनः द्रव्यादिबाह्यनिमित्तसन्निधाने सत्याभ्यन्तरसम्यगदर्शनादिमोक्षमार्गप्रकर्षावाप्सौ कृत्स्नकर्मसंक्षयात् मोक्षो विवक्षितस्ततो न कश्चित् वोषः इति । इति अकलंकदेवानामभिप्रायेण भावानां किञ्चित् विवेचनं कृतम् । विशेषजिज्ञासया तत्रैव तत्त्वार्थवात्तिकालंकारे पश्यन्तु इति ।
औपशमिकभावः चतुर्थगुणस्थानात् उपशान्तकषायान्तम् । क्षायिकभावश्च असंयतसम्यग्दृष्टः आरभ्य अर्हत्परमेष्ठिनः सिद्धस्य वा भवति । क्षायोपमिकभावः आक्षीणकषायान्तम् । औषयिकभावः प्रथमगुणस्थानादारभ्य अयोगकेवलिघरम
आदिमान औदयिकादि पर्यायों की अपेक्षा से संचित स्वभाव को छोड़ता भी है । इसलिये हम अनेकान्तवादियों के यहाँ यह कोई दोष नहीं आता है।
दूसरी बात यह है कि हम लोग स्वभाव से त्याग या अपरित्याग से मोक्ष नहीं मानते हैं।
प्रति शंका-तो पुनः आप कैसे मोक्ष मानते हैं ?
प्रति समाधान-आठ प्रकार के कर्मों के वशीभूत हुई आत्मा के द्रव्य, क्षेत्र, कालरूप बाह्य निमित्त मिल जाने पर और अभ्यंतर में सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग की प्रकर्षता प्राप्त हो जाने पर संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष माना गया है। इसलिये कोई दोष नहीं है । इस प्रकार अकलंकदेव के अभिप्राय से भावों का कुछ विवेचन किया है। विशेष जानने की इच्छा होवे तो उसी तत्त्वार्थवात्तिक अलंकार ग्रन्थ में देख लीजिये।
अब इन भावों को मुणस्थानों में घटित करते हैं
औपशमिक भाव चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है । क्षायिक भाव चौथे गुणस्थान से लेकर अहंत भगवान् तक अथवा सिद्धों में रहता है। क्षायोपशमिक भाव पहले से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है । औदयिक भाव पहले गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नामक चौदह गुणस्थान के