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नियमसार-प्राभूतम्
चतुष्पदानां दशलक्ष कोटयः, सरीसृपानां नवलक्षफोटयः, सुरनारकमनुष्याणां षशतिपंचत्रिशतिद्वादशलक्ष कोटिकुलानि च संभूय सर्वाणि सार्द्धसप्तनवश्य प्रशतकोटिलक्षाणि १९७५००००००००००० । उक्तं च-
एयाय कोडिकोडी सत्ताणजनीय सदसहस्साई । पण कोडिसहस्सा सच्वंगीणं कुलाणं च ॥ ११७ ॥ योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि । सचितावित मिश्रशीतोष्ण मिश्रसं वृत विद्युतमिश्राणि । विस्तरतश्चतुरशीतिलक्षभेदा भवन्ति ।
उक्तं च-किच दरषातुसत्तय तरुदस विद्यलिदियेसु छच्चेव । सुरनिरयतिरियचजरो चोदस मणुए सदसहस्सा ॥
नित्य निगोदचतुर्गति निगोद पृथ्वी जलाग्निवायुकायिकजीवानां प्रत्येकं सप्तलक्षयोनयः, वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनयः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानां प्रत्येकं द्विलक्षयोनयः, सुरनारकतिर्यङ्जीवानां प्रत्येकं चतुर्लक्ष योनयः । मनुष्याणां
भैंस आदि के दस लाख कोटि, सरीसृपों के नव लाख कोटि देवों के छब्बीस लाख कोटि, नारकियों के पच्चीस लाख कोटि और मनुष्यों के बारह लाख कोटि प्रमाण हैं। श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है
एक कोड़ाकोड़ी सत्तानवे लाख और पचास हजार करोड़ इतनी ये सभी जीवों के कुलों की संख्या है ।
जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। इनके नव भेद हैं- सचित, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत और संवृतविवृत मिश्र । विस्तार से योनियों के चौरासी लाख भेद होते हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ।
कहा भी है- नित्यनिगोद, इतरनिगोद और धातुचतुष्क इनकी सातसात लाख योनियाँ हैं, वनस्पति की दस लाख, विकलत्रय की छह लाख, देव, नारको और तिर्यंचों की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । नित्य निगोद, चतुर्गतिनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाधिक इन प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हैं । वनस्पतिकायिक जीवों की दस लाख योनियाँ हैं । दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय जीवों में प्रत्येक की दो दो लाख योनियाँ