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नियमसार-प्राभृतम् च चतुर्दशलक्षयोनयः इति संभूय चतुरशीतिलक्षयोनयः सन्ति । जीवसमासाश्चतुदश-बावर सूक्ष्मैकेन्द्रियहीन्द्रियत्रींद्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंजिपंचेंद्रियजीवाः सप्तविधाः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन त एव चतुर्दशसमासा भवन्ति । गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यत्वसम्यक्त्वसंज्याहारविकल्पैश्च मार्गणास्थानानि अपि चतुर्दश भवति ।
अमूनि कुलयोनिजीवसमासमार्गणास्थानान्यपि जीवस्य न सन्ति । किन, शुद्धनयेन जीवः सदाशिवः, तस्य सर्वदा कर्मबन्धसम्बन्धाभावात् ।।
तात्पर्यमेतत्--सफलविमलकेवलशानदर्शनसुखवीर्यस्वभावस्य शुद्धजीवस्य संसारस्य सद्भाव एव न विद्यते, पुनः इमे चतुर्गतिभवभ्रमणारिमार्गणास्थानपर्यंता विकाराः कथं संभवेयुः १ न कथमपोति ज्ञात्वा निजस्वभावं श्रद्धानेन भवता अशुद्धनयेन कर्ममलेनाच्छन्नस्य स्थात्मनः शुद्धयर्थ प्रमादं हित्वा सततं पुरुषार्थो निदोषः ॥४२॥ हैं। देव, नारकी और तिर्यच इनकी चार-चार लाख योनियाँ हैं और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । ये सब मिलकर चौरासी लाख योनियाँ हैं।
जीवसमास के चौदह भेद हैं-एकेंद्रिय के बादर-सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंझि, पंचेंद्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त अपर्याप्त भेद करने से चौदह जीवसमास होते हैं ।
__ मार्गणा के भी चौदह भेद हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और अहारक-ये चौदह मार्गणास्थान हैं।
ये कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान भी जीव के नहीं हैं, क्योंकि शुद्धनय से जीव सदाशिव है, इसलिये उसके सदाकाल कर्मबंध के संबंध का अभाव है।
तात्पर्य यह निकला कि सकल विमल केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभाव वाले शुद्ध जीव के संसार का सद्भाव ही नहीं है, पुनः ये चतुर्गति भ्रमण से लेकर मार्गणास्थान पर्यंत विकार भाव कैसे सम्भव होंगे ? अर्थात् किसी प्रकार भी नहीं हैं। ऐसा जानकर निजस्वभाव का श्रद्धान करते हुए आपको अशुद्धनय से कर्ममल