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कथं न सन्ति, तस्य सहजविमल सफल केवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वभावत्वात् ? सत्यमुक्तं भवता, परं अत्र निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपस्य विवक्षास्ति, अथवा 'पयडी सोलसहायो जीवं गाणं अणाइसंबंधो । - इति कथनात् जीवेन सह अनादिकालात् यत्कर्मसंबंधो विद्यते तस्य प्रकृतिः शीलः स्वभावः इति पर्यायनामानि । अतः कर्मोदयेन सहितस्य जीवस्य ये केचित् भावा: परिणामास्तेऽपि स्वभावशब्देन कथयितुं शक्यन्ते । ते स्वभावा जीवस्य न सन्ति ।
नियमसार-प्राभूतम्
तथा चोक्तं पञ्चास्तिकाये
अत्ता कुणदि सहावं तस्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छति कम्मभावं अण्णा गावगाहा ॥ ६५ ॥
territoपि एकमेव उक्तं 'त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वभावस्थानानि' इति ।
इवमत्र तात्पर्यम् - सम्यग्दृष्टिर्जीवः यदा सरागचर्यां त्यक्त्वा वीतरागनिविकल्पसमाधौ तिष्ठति तदा परमसमरसाभावेन परिणतः सन् मानापमानहेतुभूत
शंका - निश्चयनय से जीव के स्वभाव स्थान क्यों नहीं हैं, क्योंकि जीव तो सहज विमल सकल केवलज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वभाव वाला है ?
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समाधान -- आपका कहना ठोक है, फिर भी यहाँ निर्विकल्प तत्त्वस्वरूप की विवक्षा है । अथवा – "प्रकृति, शील, स्वभाव ये कर्मप्रकृति के नाम हैं। जीव का और इन कर्मों का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है ।" इस कथन को अपेक्षा जीव के साथ अनादिकाल से जो कर्म का सम्बन्ध है, उसको भी आचार्य ने प्रकृति, शील और स्वभाव ये पर्यायवाची नाम दिये हैं। इसलिये कर्मोदय से सहित जीव के जो कोई भावपरिणाम हैं, वे भी स्वभाव शब्द से कहे जा सकते हैं, वे स्वभाव जीव में नहीं हैं ।
टीकाकार श्रीप्रभ मलधारी देव ने यही बात कही है कि- "त्रिकाल में निरुपाधिस्वरूप शुद्ध जोवास्तिकाय के निश्चय से विभावरूप स्वभावस्थान नहीं हैं।"
यहाँ तात्पर्य यह निकलता कि सम्यग्दृष्टि जीव जब सराग चर्या को छोड़कर वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होता है, तब परम समरसीभाव से परिणत