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नियमसार प्राभृतम् समस्तरत्यरतिभावाभावात् सांसारिकसुखदुःखानुभवनशून्यत्वेन हर्षविषादपरिणतेरभावात् च स्वात्मजन्यपरमानंदामतमनुभवति, तवानीमेव परमशक्लष्यानबलेन कारणसमयसारात् कार्यसमयसारो भूत्वा अनंतचतुष्टयमयीमृद्धिमवाप्य परमैश्वर्यसंपन्नः त्रैलोक्येश्वरो भवति इति अवबध्य परमसाम्यभावोऽवलम्बनीयः ॥३९॥ पुनः जीवस्य कर्मबंधो वर्तते न वा इत्याशंकायां समादधते आचार्या:...
णो ठिदिबंधाणा पयडिट्टाणा पदेसठाणा वा।
णो अणुभागट्ठाणा जीक्स्स ण उदयठाणा वा ॥४०॥ जोवस्स ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा वा पदेस ठाणा णो-जीवस्स स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि वा प्रवेशस्थानानि न, अणुभागट्ठाणा णो उदय ठाणा वा ण-अनुभागस्थानानि न उदयस्थानानि वा न संति इति ।
होता हुआ मान-अरमान के लिये कारण ऐसे सम्पूर्ण रति-अरति भाव का अभाव हो जाने से, सांसारिक सुख-दुःख के अनुभव से शून्य होने से हर्ष-विषादरूप परि. पति का अभाव हो जाने से, वह मुनि अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानन्द अमृत का अनुभव करता है। उसी समय परमशुक्लध्यान के बल के कारण समयसार से कार्यसमयसार रूप परिणत होकर अनन्तचतुष्टयमयी ऋद्धि को प्राप्त कर परम ऐश्वर्य से सम्पन्न तीन लोक का ईश्वर हो जाता है, ऐसा समझकर परम साम्यभाव का अवलंबन लेना चाहिये ॥३९।।
पुनः जीव के कर्मबंध हैं या नहीं ! ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान करते हैं
अन्वयार्थ—(जीवस्स ठिदिबंधट्ठाणा णो) जोव के स्थितिबंध के स्थान नहीं है (पडिट्ठाणा पदेसठाणा वा अणुभागट्ठाणा णो) प्रकृतिबंध के स्थान, प्रदेशबंध के स्थान और अनुभागबंध के स्थान भी नहीं हैं (वा उदयठाणा ण) और उदय के स्थान भी नहीं हैं ॥४०॥
टोका-जीव के स्थितिबन्ध स्थान , प्रकृतिबन्ध स्थान और प्रदेशबन्ध स्थान नहीं हैं । न अनुभागबन्ध स्थान हैं और न उदयस्थान ही हैं। ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले जीव के शुद्धनिश्चयनय से प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश