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नियमसार-प्राभृतम् नित्यं, तवेधोपादेयम्, अन्यत्सर्व रोगशोकादिजनितनानासंकल्प-विकल्परूपं विभावभावं तद्धयमिति निश्चित्य सततं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव भवता भावनीयम् ॥३८॥ तहि उपादेय भूतस्य जीवतत्त्वस्य किं किं न वर्तते ? इति जिज्ञासायर्या ब्रुवन्त्याचार्या:
णो खलु सहावठाणा णा माणवमाणभावठाणा वा।
णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिसठाणा वा ॥३९॥ सहावठाणा खलु णो-स्वभावस्थानानि खलु न । कस्य ? जीवस्स-जीवस्य । माणवमाणभावठाणा वा णो-मानापमानभावस्थानानि वा म । हरिसभावठाणा को अहरिसठाणा वा णो-हर्षभावस्थानानि वा न, अहर्षस्थानानि वा न विषादभावस्थानानि वा न इति ।
तद्यथा-संसारावस्थायामपि जीवस्य शुद्धनिश्चयनयेन स्वभावमानापमानभावहर्षाहर्षभावस्थानानि न सन्ति, एषां कर्मोदयजनितत्त्वात् । अतो जीवः त्रिकालनिरुपाधिस्वभावटंकोत्कीर्णज्ञायकैकभाव एव । ननु निश्चयेन जीवस्य स्वभावस्थानानि अन्य जो भी रोग-शोक आदि से उत्पन्न नाना संकल्प-विकल्परूप बिभाव भाव हैं, वाह हेय हैं। ऐसा निश्चय करके आपको हमेशा अपने शुद्धात्म तत्त्व की ही भावना करते रहना चाहिए ॥३८॥
तो पुनः उपादेयभूत जीवतत्व में क्या-क्या नहीं है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ—(जीवस्स खलु सहावठाणा णो) जीव के निश्चय से स्वभाव स्थान नहीं हैं, (वा माणवमाणभावठाणा णो) और मान अपमान भाव स्थान नहीं है, (हरिसभावठाणा णो) हर्ष भावस्थान नहीं हैं, (वा अहरिसभावठाणा णो) और विषाद भावस्थान भी नहीं हैं ॥३९॥
____टीका—जीब के निश्चय से स्वभाव स्थान नहीं हैं, मान अपमान भावस्थान नहीं हैं, हर्ष भावस्थान और हर्षरहित भावस्थान भी नहीं हैं। उसी को कहते हैं
___ संसार अवस्था में भी जीव के शुद्ध निश्चय नय से स्वभाव, मान, अपमान, हर्ष, विषाद भावस्थान नहीं हैं, क्योंकि ये सब कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं । इसलिये जीव तीनों काल में उपाधिरहित स्वभाव वाला टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायफ भाव ही है।