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नियमसार-भाभृतम् ज्ञानदर्शनस्वभावजीवस्य शुद्धनिश्चयनयेन प्रकृतिबंधस्थितिबंधानुभागबंधप्रदेशबंधस्थानानि न सन्ति, तथैव उदयस्थानान्यपि न विद्यन्ते । प्रकृतिः स्वभावः, तस्य स्वभावस्याप्रच्युतिः स्थितिः, तीव्रमवादिभावेन रसविशेषोऽनुभागः, इयत्तावधारणं प्रदेशः इति । तद्यथा--ज्ञानाधरणादेः अर्थानवबोधादयः प्रतिबंधः, तेषामेव कर्मणां अर्थानयबोधादिस्वभावावप्रच्युतिः स्थितिबन्धः, तेषामेव कर्मपुद्गलानां तोत्रमंदादिभावेन स्वगतसामर्थ्य विशेषोऽनुभागबंधः, कर्मभावपरिणतपुद्गलानां परमाणुपरिच्छेदेनाथधारण प्रदेशबंधश्च । त एते प्रकृत्यादयश्चत्वारो बंधप्रकाराः । कर्मणां फलमानकालप्राप्तिरुदयः। यद्यपि इमानि कर्मबंधोक्यस्थानानि अनादिबंधबंधनवशात् जीवस्य दृश्यन्ते, तथापि तानि व्यवहारनयेनैव । न चाऽयं व्यवहारनयोऽसस्यः कर्मोपाधिजन्यविभावभावनाहित्वात् । अन्यथा कर्मबंधोदयाभावे संसारस्याभावो प्रसज्येत, संसाराभावे च मोक्षस्यापि अस्तिस्वं वपुष्पवत एव ।
बन्ध-ये चार प्रकार के बन्ध स्थान नहीं हैं। उसी प्रकार से कर्मों के उदयरूप स्थान भी नहीं हैं।
स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, लस स्वभाव का न छूटना स्थिति है, तीव्रमंद आदि भाव से फलविशेष का होना अनुभाग है, प्रदेशों की गणना का निश्चय करना प्रदेश है। उसो का स्पष्टीकरण करते हैं-ज्ञानावरण आदि कर्मों का स्वभाव है, पदार्थों का ज्ञान आदि न होने देना प्रकृतिबंध है, उन्हीं कर्मों का पदार्थों का ज्ञान न होने देने रूप स्वभाव से च्युत न होना स्थितिबन्ध है, उन्हीं कर्म पुद्गलों में तीवमंद आदि भाव से अपनी जो सामर्थ्य विशेष है, उसी का नाम अनुभागबन्ध है और कर्मभाव से परिणत पुद्गलों का परमाणु के माप का निश्चय होना प्रदेश बंध है । ये बन्ध के चार भेद हैं। कर्मों के फल को देने का समय आ जाना उदय है । यद्यपि ये कर्मों के बन्ध और उदय स्थान अनादिकालीन बन्ध के वश से जीव में देखे जाते हैं, फिर भी ये व्यवहारनय से ही हैं और यह व्यवहारनय असत्य भी नहीं है, क्योंकि कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुये विभाव भावों को यह ग्रहण करने वाला है। अन्यथा जीव में कर्म का बन्ध-उदय न मानें तो संसार का हो अभाव हो जायेगा और संसार का अभाव हो जाने पर मोक्ष का भी अस्तित्व आकाशपुष्प के समान ही रहेगा | इसलिये स्वभाव दृष्टि से अथवा परमार्थ स्वरूप से ये बन्ध उदय-स्थान नहीं हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिये । इससे पुनः परमसमाधिरूप