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नियमसार-प्राभृतम्
११९ क्षीणकषायस्यान्त्यसमये घातिकर्माणि हत्या भावरूपेण पुद्गलकर्मभ्यः पृथग् भूत्वा भावमोक्षं लभते, तदनन्तरं अयोगकेवलिचरमसमये पौद्गलिकशरीराविसंयोगं सर्वतः स्यक्त्वा द्रव्यमोक्ष लभते । तदानीमा धमादौन चतुर्द्र न्याणि गतिस्थित्यादिरूपेण उपकुर्वन्ति, किन्तु जीवस्य काचित् हानिन जायते इति आस्था पुद्गलमयेऽस्मिन् शरीरेऽपि निर्ममो भूत्वा स्वस्थचिच्चैतन्यचिन्तामणिरत्नमेव प्रयत्नेन रक्षणीयमुपासनोयं निजहस्तगतं च कर्तव्यम् ॥३७॥
एवं अस्तिकायस्य संख्यालक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम्, षड्दव्यस्य प्रवेशगणनाकथनप्रधानत्वेन च द्वे सूत्रे गते, द्रव्यस्य मूर्तत्वामूर्तत्वचेतनाचेतनत्व विभागकथनपरत्वेन उपसंहाररूपेण चैक सूत्रं गतम्, इति चतुभिः सूत्रः षड्द्रव्यविशेषप्रतिपादकोऽयं तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।।
षट्तत्त्वान्तर्गतोऽपि यो ममात्मा शश्वच्छुद्धबुद्धनिरञ्जन-निर्विकार-चिश्चेतन्यचिन्तामणिरेव, तस्मै मे नमः स्यात् सन्ततम् ।
होकर क्षीणकषाय गुणस्थान के अंतिम समय में घाति कर्मों का नाश करके भावरूप से पुद्गल कर्मों से पृथक् होकर भावमोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अनंतर 'अयोग केवली' स्थिति के चरम समय में पोद्गलिक शरीर आदि के संयोग को सब . प्रकार से छोड़कर द्रव्यमोक्ष को प्राप्त कर लेता है । तब उस समय भी उन्हें ये धर्मादि चार द्रव्य गमन करने, ठहरने, अवकाश प्राप्त करने और वर्तना करने आदि रूप से उपकार करते हैं, किंतु जीव की कुछ हानि नहीं होती है। ऐसा जानकर पुद्गलमयी इस शरीर में भी निर्मम होकर प्रयत्नपूर्वक अपने चिच्चैतन्य चिन्तामणि-रत्न की रक्षा करनी चाहिए, उसको उपासना करनी चाहिए और उसे अपने हस्तगत कर लेना चाहिए।
___ इस प्रकार अस्तिकाय की संख्या और लक्षण को कहने वाली एक गाथा हुई । छहों द्रव्यों को प्रदेश-गणना को कहने की प्रधानता से दो गाथासूत्र हए। मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व और अचेतनत्व इनका विभाग बतलाते हुए उपसंहार रूप से एक गाथासूत्र हुआ । इन चार गाथासूत्रों से छह द्रव्य विशेष का प्रतिपादक यह तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।