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नियममार-प्राभूतम् तद्यथा-यद्यपि परमाण्वादयः केचित् पुद्गलाश्चक्षुरिन्द्रियग्राह्यताभावात् अतीन्द्रियाः संति तथापि ते नामर्ताः, स्पर्शरसगंधवर्णत्वात् । संसारिजीवा अपि कर्यचित् मूर्ताः सन्ति, अनादिकर्मबंधनबद्धत्वात् । अन्यथा अमूर्तेनात्मना सह मर्तकर्मबंधाभावात् संसारो न दृश्येत ? दृश्यते चातः शुद्धाः सिद्धजीवाः एव सर्वथा अमूर्ता वर्तन्ते । शेष चतुर्वव्याणि सर्वथाऽमूर्तान्येव । तथैव जीवा ज्ञानदर्शनरूपचैतन्यप्राणेन त्रिकालं जीवंति, संसारिणः सिद्धा या केचिदपि जीवाः चैतन्यमन्तरेण जीवत्वमेव न लभन्ते, तद्व्यतिरिक्तानि पश्चापि द्रव्याणि अचेतनान्येव ।।
ननु इंद्रियबलायुःश्वासोच्छ्वासरूपप्राणः सहित संसारिजीवस्य शरीरं पौद्गलिकमपि चेतनागणसहितं वागडे, पनः पर्थ पुदगलदरापनेतनमेन ? युक्तमुक्तमः परन्तु चेतनागुणयुक्तजीवस्य कर्मबन्धसम्बन्धेनेव गृहीतमिदं शरीरं चेतनं प्रति
उसी को कहते हैं-यद्यपि परमाणु आदि कुछ पुद्गल चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं, अतः अतीन्द्रिय-इंद्रियगम्य न होते हुए भी वे अमूर्तिक नहीं हैं, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले हैं। संसारी जीव भी कथंचित् मूर्तिक हैं, क्योंकि ये अनादिकालीन कम-बंधन से बंधे हुए हैं। अन्यथा—यदि इन जीवों को मूर्तिक न मानो तो अमूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बंध न हो सकने से संसार ही नहीं दिखेगा ? और संसार तो दिख रहा है । इसलिए शुद्ध, सिद्ध जीव ही सर्वथा अमूर्तिक हैं । शेष चार द्रव्य सर्वथा अमूर्तिक ही हैं ।
उसो प्रकार जीव ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यप्राणों से तीनों काल जीवित रहते हैं । संसारी हों अथवा सिद्ध, कोई भी चैतन्य के बिना जीवपने को ही !प्त नहीं कर सकते हैं । जीव से अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अचेतन ही हैं |
शंका-इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन प्राणों से सहित संसारी जीव का शरीर पोद्गलिक होते हुए चेतनागुण से सहित दिख रहा है । पुनः पुद्गल द्रव्य अचेतन ही कैसे हैं ?
समाधान...-आपका कहना युक्तियुक्त है, परन्तु चेतनागुण से युक्त जीव के संबंध से ही ग्रहण किया गया यह शरीर चैतन्य प्रतिभासित होता है, किन्तु जब चैतन्य गुण आत्मा उस शरीर से निकल जाता है, तब मृत कलेवर को स्पर्श करना या देखना भी शक्य नहीं रहता है। सभी स्वपरिवार के लोग ही उस शरीर को