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नियमसार-प्राभतम् भासते, किन्तु यदा चैतन्यगुणसहित आत्मा तस्मात् निर्गच्छति तदा मृतकलेवरं स्प्रष्टुं द्रष्टुं वा न शक्यते, सर्वे स्वजना एव तच्छरीरं भस्मसात्कुर्वन्ति, अतो ज्ञायते अयमात्मैव व्यवहारनयेन संसारावस्थायां शरीरवाङ्मनःप्राणापानादिरूपेण पुद्गलान् गृह्णाति, तथापि न ते पुद्गलाः कदाचिदपि ज्ञानदर्शनरूपेण परिण मन्ति, तादृशत्यभावात् । तस्मात् पुद्गलद्रव्यमचेतनमेव । उक्तं च श्रीपूज्यपादाचार्य :-.
"अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतन ततः । ___ तात्पर्यमेतत्-अस्मिन् संसारे यत् किमपि दृश्यते तत्सर्व पुद्गलमेव । जीवोऽपि सेन साथ संयोग-संबन्धं कृत्वैव उपलभ्यते, न तु पथाभूतो शुद्धस्वरूपो वा।
अयं सम्यग्दृष्टिरसंयतो देशसंयतो वा यथोक्त षड्द्र व्यं पञ्चास्तिकायं च अवितर्थ ज्ञात्वा श्रद्धते, पुनः सफलचारित्रबलेन निजान्तःशक्ति विकासयन निविकल्पसमाधिमारुह्य सर्वथा मोहनीयं निर्मल्य अंतर्बहिर्ग्रन्थिभ्यां मुक्तो निर्ग्रन्थो भूत्वा भस्मसात् कर देते हैं। इसलिए यह जाना जाता है कि यह आत्मा ही व्यवहार नय से संसार अवस्था में शरीर, बचन, मन, श्वासोच्छ्वास आदि रूप से पुद्गलों को ग्रहण करता है, फिर भी वे पुद्गल कदाचित् भी ज्ञानदर्शन रूप से परिणमन नहीं करते हैं, क्योंकि उनमें वैसी शक्ति का अभाव है। इसलिए पुद्गल द्रव्य अचेतन
श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है
जो भी दिखने योग्य है, वह सब अचेतन है और चेतन अदृश्य है--दिखता नहीं है । तात्पर्य यह निकला कि इस संसार में जो कुछ भी दिख रहा है वह सब पुद्गल ही है । जीव भी उसके साथ संयोग संबंध करके ही उपलब्ध हो रहा है । किंतु पृथक्भूत जीव या शुद्धस्वरूप जीव नहीं दिख रहा है ।
____ यह असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा देशव्रती इन आगम-कथित छहों द्रव्यों और पंचास्तिकाय को वास्तविक रूप से जानकर श्रद्धान करता है । पुनः सकलचारित्र के बल से अपनी अंतरंग शक्ति को प्रगट करता हुआ निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर मोहनीय का सर्वथा निर्मूलन करके अंतरंग-बहिरंग-ग्रन्थियों से रहित निग्रंथ
१. समाधिशतक, ४६ ।