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नियमसार-प्राभृतम् नृत्यं करोति । पुनः जीवः कथं न नृत्यति ? चैतन्यधातुना निर्मितत्वात् । जोवेषु रागादिभावा दृश्यन्ते ते कि जीवस्य स्वभावा न सन्ति ? न सन्ति, तत्कथं ? शुद्धनिश्चयनयेन रागादयः पुद्गलविकाराः, पुद्गलकर्मोदयेन उत्पद्यमानत्वात्, अतस्तेभ्यो विरुद्धो रहितः शुद्धो यः कश्चित् ज्ञानदर्शनप्रधानश्चेतन्यधातुस्तद्रूपत्वात् जीवस्य इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिणामभिप्रायः।
____ तात्पर्यमेतत्-बहिरास्मा जीयः पुद्गलेन निर्मितं शरीरमेव स्वस्य स्वरूपं मनुते तस्मिन् विनष्टे च स्वस्य विनाशं मन्यतेऽतोऽस्मिन् ब्याधिमंदिरे फलेवरे रति कृत्वा संसारे एव परिभ्रमन्नास्ते । यदाऽयं सम्यग्दृष्टिर्भवति तदा अणुमात्रमपि पुदगलद्रव्यं मम नास्ति इति श्रद्धानः शरीरं निर्ममत्वतोः अधतरूपेण श्रावकधर्म दधाति । ततोऽभ्यासबलेन संसारशरीरभोगेभ्यो निविण्णो भूत्वा जिनमुद्रामादाय महानतचारित्रैः कायक्लेशादिबाह्यतपश्चरणैश्च अभ्यासे परिपक्वे जाते सति
समाधान--क्योंकि जीव चैतन्यधातु से बना हुआ है ।
शंका---जो जीव में रागादि भाव दिख रहे हैं, वे क्या जीव के स्वभाव नहीं हैं ?
समाथान- नहीं हैं। शंका--ऐसा क्यों ?
समाधान--शुद्ध निश्चयनय से रागादि भाव पुद्गल के विकार हैं, क्योंकि वे पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनसे रहित शुद्ध ज्ञानदर्शन प्रधान बाला चैतन्यधातुमय जो कोई है, जीव तत्-स्वरूप ही है। यह श्रीमान् अमृतचन्द्र सूरि का अभिप्राय है।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि बहिरात्मा जीव पुद्गल से निर्मित शरीर को ही अपना स्वरूप मान लेता है और उसके विनाश में अपना विनाश मान लेता है । इसी कारण इस व्याधि के स्थान ऐसे शरीर में प्रीति करके यह संसार में ही परि. भ्रमण कर रहा है । जब यह सम्यग्दृष्टि हो जाता है, तब 'अणुमात्र भी पुद्गलद्रव्य मेरा नहीं है' ऐसा श्रद्धान करता हुआ शरीर से निर्मम होने के लिए अणुव्रतरूप से श्रावक धर्म को धारण कर लेता है ! अनंतर अभ्यास के बल से महाव्रत आदि चारित्र और कायक्लेश आदि तपश्चरण के द्वारा अभ्यास के परिपक्व हो जाने पर
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