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नियमसार-प्राभृतम् परमाणू पोग्गलदव्वं उच्चइ-परमाणुः पुदगलद्रव्यम् उच्यते । कथं ? जिच्छएण-निश्चयेन निश्चयनयविधक्षया । पुनः स्कंधः कथं पुद्गलद्रव्यं कथ्यते ? पुणो खंबस्स पोग्गलदव्योत्ति ववदेसो इदरेण-पुनः स्कंधस्य पुद्गलद्रव्यमिति व्यपदेशः संज्ञा, इतरेण व्यवहारनयेनेति ।
इतो विस्तर:-अत्र स्कंधस्वरूपेण परिणताः पुद्गलाः परमार्थेन नव्यत्वं न लभन्ते इति कथिताः। तत्कथं ? विभावपर्यायेण परिणतत्वात् । यद्यपि गणपर्यायमन्तरेण द्रव्यं न किमपि वस्तु, तथापि विभावपर्यायेण विवक्षितत्वात् तत्र द्रव्यत्वं व्यवहारनयनैव, मुख्यतया तु परमाणुनाम्नः पुद्गलस्यैव द्रव्यत्वेन विवक्षितत्वात् । अत्र पर्यंत पुदगलतत्त्वस्याख्यानं कृतं तत्किमर्थम् श्रद्धानकरणार्यम्, "तच्चाणं सद्दहणावो हवेई सम्मत्तं"-इति वचतात् । तथा यत्किमपि जगति दृश्यते तत्सर्व पुद्गलद्रव्यमेव इति निश्चयार्थ च ।
भोकुन्दकुन्दबेरेन प्रोक्तं नान्यत्र ग्रन्थे
टोका--परमाणु निश्चयनय से पुद्गल द्रव्य है और स्कंध को पुद्गल द्रव्य कहना व्यवहारनय से है।
यहाँ पर यह बताया है कि "स्कंध' स्वरूप से परिणत हुए पुद्गल वास्तव में द्रव्यपने को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे विभावपर्याय से परिणत हैं । यद्यपि गण और पर्यायों के बिना द्रव्य नाम की कोई बस्तु नहीं है, फिर भी विभावपर्याय से विवक्षित होने से स्कंध को द्रव्यपना व्यवहार नय से ही है। मुख्यरूप से तो परमाणु नाम का जो पद्गल है, उसे ही द्रव्यपना विवक्षित है । यहाँ तक पद्गल तत्व का कथन किया है ।
शंका-पुद्गल द्रव्य का कथन किसलिये किया ?
समाधान-श्रद्धान करने के लिये किया है, क्योंकि पहले श्री कुन्दकुन्ददेव कह आये हैं कि “तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है और दूसरी बात यह है कि इस जगत् में जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल द्रव्य ही है, ऐसा निश्चय कराने के लिए भी इसका कथन है ।
आ० श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही इस प्रकार से अन्य ग्रन्थ में कहा है -