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नियमसार - प्राभृतम्
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं-समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पम् | अहव तिवियप्ण होइ - अथवा त्रिविकरण भयदि मूतवीजाभमविष्यत्कालविया इदं कालद्रव्यम् । तदो संखेज्जावलिह्दसंठाणम्पमाणं तु-अतीतकालः संख्यातावलिभिर्गुणितं संस्थानप्रमाणं भवति । जीत्रादु पुग्गलादोऽणंतगुणा भात्रि - जीवात् सर्वजीवराशिसकाशात् पुद्गल राशिभ्यश्चानन्तगुणा भविष्यकालाः । संपदी समयासम्प्रति समयाः वर्तमानसमयाः वर्तमानसमयमात्रं वा वर्तमानकालः । इत्थं त्रिविधोऽपि व्यवहारकाल उच्यते ।
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लोयायासे संति य सो परमट्ठो कालो हवे - लोकाकाशे संति च सः परमार्थः कालः भवेत् । लोकाकाशस्यासंख्यात्तप्रदेशेषु प्रतिप्रदेशं एक एकः कालपरमाणुर्तते । इमे कालाणव एव परमार्थकालद्रव्यमिति निगद्यते ।
प्रथमस्तावत् द्विविध: काल:- परमार्थरूपो व्यवहाररूपचेति । तत्र संति) जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित हैं ( सो परमठो कालो हवे ) वे कालाणु परमार्थकाल हैं ।। ३१-३२।।
टीका -- कालद्रव्य के समय और आवलों की अपेक्षा दो भेद हैं । अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा तीन भेद हैं । इनमें से भूतकाल संख्यात आवलियों से गुणित संस्थान प्रमाण है। भविष्यत्काल सर्प जीवराशि और पुद्गल राशि से अनन्तगुणा है और वर्तमान काल समयमात्र है। इस प्रकार तीन काल की अपेक्षा काल तीन प्रकार का है । यह 'व्यवहार काल' कहलाता है । लोकाकाश में जो स्थित हैं, ये हो 'परमार्थ काल' हैं अर्थात् लोककाश के असंख्यात प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर एक-एक काल के अणु रहते हैं । इन कालाणुओं को ही 'परमार्थ काल' कहते हैं ।
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सर्वप्रथम काल के दो भेद हैं- परमार्थ काल और व्यवहार काल । जिसका वर्तना लक्षण है वह परमार्थ या निश्चयकाल है । और परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि लक्षण वाला व्यवहार काल है । अथवा जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर कालाणु द्रव्यरूप से स्थित है, समय आदि कल्पना भेद से रहित और अनादि अनिधन है, वह निश्चयकाल है । उसी का पर्यायरूप सादि - सान्त, समय, निमिष, घड़ी आदि कल्पनारूप व्यवहारकाल होता है ।
इस व्यवहार काल के दो भेद हैं- समय और आवली । जितने काल में