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नियमसार- प्राभृतम्
परमाणुषु धर्मादिद्रव्येषु च वर्तत एव । अयमन्त्राभिप्रायः - संसारिजीवेषु मतिज्ञानादिनरनारकादिविभावगुणपर्यायास्तथैव पुद्गलस्कंधेषु वर्णवर्णान्तरादिशब्दबंध स्थौल्य - सौक्ष्म्यसंस्थानादिविभावगुणपर्यायाः सन्ति । न तथा धर्मादिद्रव्येषु ।
तेषु चतुर्षु द्रव्येषु अस्तित्व वस्तुत्वादयः साधारणगुणाः मतिहेतुत्वं स्थितिहेतुत्वं अवगाहनहेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं च असाधारणगुणाः, अगुरुलघुगुणनिमित्तेन षड्गुणहा निषड्गुणवृद्धिरूपेण स्वभावपर्यायाश्च सत्त्येव । इति शास्था ईकु पुरुषार्थो विधातव्यो यत्तः स्वस्यशुद्धबुद्धस्वभावजीवस्य स्वभावगुणपर्याया एवं अवशिष्येरन् विभावगुणपर्यायाश्च अन्तमवाप्नुयुः ॥ ३३ ॥
एवं धर्माधर्माकाशद्रव्यलक्षण कथन मुख्यत्वेन एकं सूत्रम्, कालद्रव्यस्य लक्षणभेदादीनां धर्मादिचतुर्द्रव्यस्य गुणपर्यायाणां च सूचनपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि, इति चतुभिः सूत्रः चतुर्द्रव्यप्रतिपादकोऽयं द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । वर्णान्तर होना आदि विभाव गुण हैं और शब्द, बंध, स्थूलता, सूक्ष्मता, संस्थान आदि विभाव- पर्यायें हैं, वैसी इन धर्मादि द्रव्यों में नहीं हैं ।
इन चारों द्रव्यों में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि साधारण गुण हैं और गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व और वर्तनाहेतुत्व ये असाधारण गुण हैं । और अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुण-हानि, षड्गुणवृद्धि रूप से स्वभाव-पर्यायें हैं ही हैं।
इस प्रकार जानकर ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे अपने शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाले जीव की स्वभाव-गुण- पर्यायें ही शेष रह जावें, एवं विभाव-गुणपर्यायें अंत को प्राप्त हो जावें ।
इस प्रकार धर्म, अधर्म और आकाश - इन तीन द्रव्यों के लक्षण को कहने की मुख्यता से एक गाथा सूत्र हुआ । पुनः कालद्रव्य का लक्षण और उसके भेदो को तथा धर्मादि चारों द्रव्यों के गुणपर्यायों को कहते हुये तीन गाथासूत्र हुये । इन चार गाथासूत्रों से चार द्रव्यों का प्रतिपादक यह दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।