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नियमसार-प्राभृतम् प्रायो भवेत् न चान्यत् प्रकारेणेति । अतः यदि क्वचिदपि ग्रन्थभाण्डागारे प्राचीनमातृकामध्ये "पाठभेदो' लभेत तहि तवाधारेण मूलगायां शोधयन्तु मनीषिणः ।
अत्र गाथायग्मस्प तात्पर्यमेतत्--निश्चयव्यवहाररूपं कालद्रव्यम्, सदा प्रवाहरूपेण आगच्छत् सत् जीवस्यायुनिषेकान् निर्जरयति इति विज्ञाप्य निजायुषः क्षणं प्रत्येकमनयमिति निश्चित्य च कालस्यकापि कला धर्ममन्तरेण न यापनीया ॥३१-३२॥ कालस्य कार्य धर्मादिद्रव्याणां गुणपर्यायांश्च निरूपयन्तो भगवन्त आहुः
जीवादीदव्वाणं परिवणकारणं हवे कालो।
धम्मादिचउपणाणं सहावगुणपज्जया होति ॥३३॥
परिवट्टणकारणं कालो हवे-परिवर्तनकारण वर्तनानिमित्तं कालो भवति । केषां ? जीवादीदव्वाण-जोयाविनव्याणां जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशद्रव्याणाम् । एतत् प्रकार से । इसलिये यदि कहीं भी ग्रन्थ भाण्डार में प्राचीन प्रति में पाठ-भेद मिल जाय तो उसके आधार से विद्वान् लोग यहाँ मूलगाथा में संशोधन कर लेंगे ।
इन दोनों गाथाओं का यहाँ तात्पर्य यह लेना कि
यह निश्चय और व्यवहाररूप कालः द्रव्य सदा प्रवाह रूप से आता हुआ जोव के आयु के निषेकों को निर्जरा करता रहता है। ऐसा जानकर और अपने आयु का प्रत्येक क्षण अमूल्य है, ऐसा निश्चय करके काल की एक भी कला धर्म के बिना नहीं बितानी चाहिये ।
कालद्रव्य का कार्य और धर्मादि द्रव्यों के गुण-पर्यायों का निरूपण करते हुये भगवान् कुन्दकुन्द कहते हैं---
अन्वयार्थ—(कालो जीवादीदवाणं परिवट्टणकारणं हवे) कालद्रव्य जीवादि द्रव्यों के परिवर्तन का कारण होता है। (धम्मादिचउण्णाणं सहावगुणपज्जया होति) धर्म आदि चार द्रव्यों की स्वभाव गुण पर्यायें ही होती हैं ॥३३॥
____टोका—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन द्रव्यों में परिवर्तनवर्तना का कारण काल द्रव्य है । यह काल द्रव्य का असाधारण लक्षण है।