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नियमसार- प्राभूतम्
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starभावे सिद्धा लोकाकाशाद् ऊर्ध्वं न गच्छन्ति न च पुद्गल परमाणवोऽपि । तथैव निष्क्रियमपि आकाशं सर्वेषां स्थानं दवात्येव ।
ये केचन एषाममूर्तद्रव्याणामस्तित्वं न स्वीकुर्वन्ति ते मिथ्यादृष्टयः, थे च श्रद्दधते, ल एवं सम्यग्दृष्टयः । इति एषां स्वरूपं ज्ञात्वा निमित्तस्य च प्रभावमपि श्रद्दधता तथा सिद्धपरमेष्ठिनोऽपि ममात्मसिद्धौ निमित्ता भवन्ति धर्मादिवत् इति निश्चिन्वता सता त्वया सदा त एव सिद्धा आराधनीयाः ॥ ३० ॥
अघुना कालद्रव्यस्य सभेदें लक्षणं सूत्रद्वयेन प्रतिपादयन्त्याचार्याः-
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहब होइ तिवियप्पं । तीदो संखेज्जावलिहद संठाण (सिद्धाणं) प्यमाणं तु ॥ ३१ ॥ जीवादु पुग्गलादो ऽणंतगुणा भावि संपदी समया । लोयायासे संति य परमठो सो हवे कालो || ३२ ॥
सिद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल की गति स्थिति के लिये भी निमित्त हैं। क्योंकि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्ध भगवान् लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते I और पुद्गल के परमाणु भी धर्मास्तिकाय के बिना लोकाकाश के बाहर नहीं जा
सकते हैं ।
उसी प्रकार से, निष्क्रिय भी आकाश सभी द्रव्यों को स्थान देता ही है । जो कोई इन अमूर्तिक द्रव्यों का अस्तित्व नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो इनका श्रद्धान करते हैं वे ही सम्यग्दृष्टि हैं ।
अब आचार्य कालद्रव्य का लक्षण और भेद दो गाथाओं द्वारा प्रतिपादित करते हैं
अन्वयार्थ - ( समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं ) समय और आवलि के भेद से काल दो प्रकार का है । ( अहव तिवियप्पं होई ) अथवा तीन प्रकार का है । (तीदो संखेज्जावलि हृदसंठाणप्यमाणं तु) अतीत काल संख्यात आवली से गुणित संस्थान प्रमाण हैं (जीबादु पुमालादोऽनंतगुणा भावि ) जीव और पुद्गल से अनंतगुणा भविष्यत्काल है और (संपदी समया) वर्तमान काल समय मात्र है । (य लोयापासे
१. 'चादि' पाठ भी देखा जाता है ।