________________
नियमसार-प्रांभृतम् तात्पर्यमेतत्—अणूनां स्वभावगुणाः स्कंधानां च विभावगुणा इति ज्ञातव्या भवन्ति । ज्ञात्वा च शुद्धनयेन पुद्गलगणेभ्यः सर्वथा भिन्नो ज्ञानदर्शनगुणसंपन्नो निजात्मा एव भावनीयो सम्यग्दृष्टिजीवेन इति ॥२७॥
गुणान् प्रतिपाद्याधूना सभेदं पर्यायान् प्ररूपयन्ति---
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ। खंघसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ ॥२८॥
जो परिणामो अण्णणिरावेवखो-यः परिणामः अन्यनिरापेक्षः, सो सहावपज्जाओ-सः स्वभावपर्याय: । पुणो खंघसरूवेण परिणामो सो विहावपज्जाओ-पुनः स्कंधस्वरूपेण परिणामो यः सः विभावपर्याय इति ।
अन्यद्रव्यनिरपेक्षं परमाणुषु, यत्परिणमनं षड्गुणहानिवृद्धिरूपेण सोऽतिसूक्ष्मोऽर्थपर्यायः, स एव स्वभावपर्यायेणोच्यते । पुनश्च यत्स्कंधरूपेण परिणमनं स्वजातीयबन्धलक्षणपरिणामेन भवनं स व्यञ्जनपर्याय एव विभावपर्यायेणाख्यायसे ।
यहाँ तात्पर्य यह निकला कि अणुओं में स्वभावगुण हैं और स्कंधों में विभावगुण हैं, ऐसा जानना चाहिये । पुनः ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि के लिए शुद्धनय से पुद्गल गुणों से सर्वथा भिन्न तथा ज्ञानदर्शन गुणों से संपन्न अपनी आत्मा हो भावना करने योग्य है ॥२७॥
गुणों को प्रतिपादित कर अब आचार्य भेद सहित पर्यायों को कहते हैं
अन्वयार्थ (जो परिणामो अण्णणिरावेक्खो) जो परिणाम अन्य से निरपेक्ष है (सो सहावपज्जाओ) वह स्वभावपर्याय है। (पुणो खंघसरूवेण परिणामो) पुनः जो स्कंध रूप से परिणमन है (सो विहावपज्जाओ) वह विभावपर्याय है ॥२८॥
टीका—अन्य की अपेक्षा रहित जो परिणाम है वह स्वभावपर्याय है और स्कंधरूप से परिणमन होना हो विभावार्याय है। परमाणुओं में षड्गुण हानिवृद्धि रूप से जो परिणमन है, वह अन्य से निरपेक्ष है, यह अतिसूक्ष्म अर्थपर्याय है, इसे ही स्वभावपर्याय नाम से कहा जाता है। पुन: जो स्कंध रूप से परिणमन है, स्वजातीय बंधलक्षण परिणाम से होना है, वह व्यंजनपर्याय है। इसे ही विभावपर्याय कहते हैं।