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नियमसार-प्राभृतम् तथैव प्रोक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवतिदेवः
"पुग्गलकम्मादीणं कत्ता बबहारदा दु णिच्छ्यदो। चेदणकम्माणादा सुद्धपया सद्धभावाणं ॥८॥ ववहारा सुहदुक्ख पुग्गलकम्मम्फलं पभुजेदि ।
आदा णिच्छयणयदो चेरण-भावं खु बादरस' ।।" ननु अशरीरी शुद्धात्मा निष्क्रिय एवं कथं पुनः शुद्धभावानां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च घटते ? सत्यमेव, कर्मनोकर्मनिमित्ता या क्रिया सा तु तत्र नास्ति इति निष्क्रियत्वं, तथापि परनिमित्तक्रियाऽभावेऽपि स्वाभाविको ऊर्ध्वगतिर्मुक्तस्योप्यते । अथवा तस्थानन्तज्ञानदर्शनाचिन्त्यसुखानुभवनादिक्रियाः सन्त्येव, तथैव स सिद्धपरमात्मा सहजशुद्धस्वात्मस्वभावोत्थपरमालादैकलक्षणं सुखपीयूषमपि भुक्ते । अतः शुद्धभावानां
इसी बात को श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीदेव ने भी कहा है ---
व्यवहार से यह आत्मा पुद्गल कर्म आदि का कता है, निश्वयनय से चेतनकर्म-राग-द्वेषादि भाव-कर्मों का कर्ता है, और शुद्धन य स शुद्ध भावों का ही कर्ता है । उसी प्रकार से यह आत्मा व्यबहारनय से पुद्गल कर्म के फल ऐसे सुखदुःख को भोगता है और निश्चयनय से अपनी आत्मा के चैतन्य भावों का ही भोक्ता है । यहाँ पर भी ऊपर की गाथा में निश्चयनय से अशुद्धनिश्चयनय लेना चाहिये ।
शंका-यह शरीर-रहित शुद्धात्मा निष्क्रिय ही है । पुनः वह शुद्ध भावों का कर्ता-भोक्ता है, यह बात कैसे घटेगी ?
___समाधान---आपका कहना ठीक है, कर्म और नोकर्म के निमित्त से होने वाली जो क्रियायें हैं वे बहां नहीं हैं, इसलिये बह शुद्ध आत्मा निस्क्रिय है, फिर भी, पर के निमित्त से होने वाली क्रिया का अभाव होने पर भी, उन मुक्त जीवों में स्वाभाविक ऊर्ध्वगति मानी गई है। अथवा उनके अनंतज्ञान दर्शन और अचिन्त्य सुख के जानने देखने और अनुभव करने आदि रूम क्रियायें हैं ही हैं । उसी प्रकार वे सिद्ध परमात्मा सहज शुद्ध अपनी आत्मा के स्वभाव से उत्पन्न हुए परमाह्लाद एकलक्षणरूप सुख-अमृत का भी अनुभव करते ही हैं। इसलिये उनके
१. व्यसंग्रह ।