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नियमसार-प्राभृतम् अत्र नियमसारमन्थे पूर्वोक्तक्रमेण चतुःसूत्रः नियमशब्दपीठिका, पंचसूत्रः सम्यक्त्वस्वरूपतद्विषयपदार्थमुख्यता, अष्टसूत्रः जीवस्वरूपतद्गुणपर्यायमुख्यता, सूत्रद्वयेन च नयविवक्षातः जीवद्रव्यव्याख्यानम्, इति एकोनविंशतिसूत्रैः त्रयोऽन्तराधिकारा गताः ॥१९॥ इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसार-प्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वादसन्दिानमा यार तोडगमहाधिकारमध्ये सम्यक्त्वप्ररूपणाया
अंतर्गते जीवाधिकारनामा प्रथमोऽधिकारः समाप्तः ।। इस नियमसार ग्रन्थ की इस 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका में पूर्वोक्तकम से चार गाथाओं द्वारा "नियम" शब्द की पीठिका प्रस्तुत की गई है, अर्थात् उसका व्याख्यान हुमा है । पुनः पाँच गाथासूत्रों से सम्यक्त्व का स्वरूप और उसके विषयभूत पदार्थों के कथन की मुख्यता प्रतिपादित है । अनंतर आठ गाथा-सूत्रों में जीव का स्वरूप जो गुण और पर्यायें हैं, उनके कथन की प्रधानता है । पुनः दो गाथासूत्रों द्वारा नयों की विवक्षा से जीवद्रव्य का व्याख्यान किया गया है। इस तरह उन्नोस सूत्रों द्वारा तीन अन्तराधिकार पूर्ण हुये ॥१९॥
इस प्रकार भगवान् श्री कुंदकुदाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत स्याद्वाद-चंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्ग महाधिकार के मध्य सम्यक्त्व प्ररूपणा के अंतर्गत जीवाधिकार नामका पहला अधिकार समाप्त हुआ।