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नियमसार- प्राभूतम्
तव्विवरीया खंधा असुहमा इदि परूवेंदि - तद्विपरीताः स्कंधा : अतिसूक्ष्माः इति रूपयन्ति । के ते ? गणधरदेवादय इति क्रियाकारक संबंधः ।
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इतो विस्तरः ---- ये पुद्गलस्कंधाः पृथक्कर्तुं शकलीकतु वा शक्यन्ते किन्तु पुन: मेलयितुं न शक्यन्ते ते स्कंधाः अतिस्थूलस्थूलाल्या उच्यन्ते यथा पृथ्वीपवंसप्रभृतयः । ये पृथक् पृथक् कर्तुमपि शक्यन्ते परस्परं मेलयितुमपि शक्यन्ते ते स्कंधाः स्थूला इति कथ्यन्ते यथा घृतनीरतैलादितरलपदार्थाः । ये स्कंधाः नेत्राभ्यां तु वृश्यन्ते परं ग्रहीतुं न शक्यन्ते ते स्थूलसूक्ष्मनाम्ना निगद्यन्ते यथा छायातपोधोतादयः । ये चक्षुभिः न दृश्यन्ते किन्तु शेषैश्चतुरिन्द्रियैर्गृह्यन्ते ते स्कंधाः सूक्ष्मस्थूलाः इति निरूप्यन्ते, यथा स्पर्शरसनप्राणकर्णेन्द्रियाणां विषयभूताः स्पर्शरसगन्धशब्दाः । ये कार्मणवणारूपेण परिमितु योग्याः रकवास्तं सूक्ष्मा इति सूच्यन्ते इसे इन्द्रियज्ञानेन ज्ञातुमशक्याः कार्यास्तित्वमात्रेण अनुमापयितुं शक्यत्थेन अनुमानगम्याश्च । ये च कर्मवर्गणारूपेण परिणमितुमपि अयोग्या अतीय सूक्ष्माः स्कंवारते अतिसूक्ष्मा
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कर्मणा के अयोग्य पुद्गलस्कंध 'अतिसूक्ष्म' हैं— ऐसा श्री गणधरदेव आदि ने कहा है, यह क्रियाकारक संबंध करके अर्थ हुआ ।
अब विस्तार करते हैं - जिन पुद्गल स्कंधों को अलग-अलग किया जा सके या उनके टुकड़े किये जा सकें, किंतु पुनः उन्हें मिलाना शक्य न हो वे पुद्गलस्कंध 'अतिबादरबादर' कहलाते हैं, जैसे कि पृथ्वी, पर्वत आदि । जिन स्कंधों को पृथक्-पृथक् भी किया जा सकता है, पुनः मिलाया भी जा सकता है, वे स्कंध 'बादर' हैं, जैसे घी जल तेल आदि तरल पदार्थ । जो स्कंध आँखों से तां देखे जाते हैं किंतु जिनका ग्रहण करना शक्य नहीं है, वे 'बादरसूक्ष्म' नाम से कहे जाते हैं, जैसे छाया, घाम, चाँदनी, प्रकाश आदि । जो स्कंध सूक्ष्मबादर हैं, ये इन स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्श, रस, गंध और शब्द हैं । जो स्कंत्र कार्मणवर्गणा रूप से परिणमन करने योग्य हैं, वे 'सूक्ष्म' कहलाते हैं । ये इंद्रियज्ञान से नहीं जाने जा सकते हैं, कार्य का अस्तित्व देखकर ही इनका अनुमान किया जाता है, इसलिये ये अनुमान गम्य हैं । जो स्कंध कर्मवर्गणारूप से परिणत होने योग्य नहीं हैं, ये बिल्कुल सूक्ष्म होने से अतिसूक्ष्म या सूक्ष्मसूक्ष्म कहलाते हैं, ये अवविज्ञान आदि