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नियमसार-प्राभृतम् इति प्रतिपाद्यन्ते, इमे चावधिज्ञानादिप्रत्यक्षज्ञानेनैव जायन्ते । अमी षट् स्कंधप्रकारा: विभावपुद्गला एव न च स्वभावपुद्गलाः ।।
तात्पर्यमेतत्-इमे सर्वे पुद्गलस्कंधाः शरीरवाङ्मनःप्राणापानैः सुखदुःखजीवितमरणैश्च जीवानामुपग्रहं कुर्वन्ति, तथापि एते जीचाः अस्मिन्नपारे संहारमहार्णवे क्षणमपि स्वास्थ्यं न लभन्ते, निजात्मजन्यनिराकुलसुखाभावात्। अतः एभिः साधं संपर्कस्त्यक्तव्यः । किञ्च-"संयोगमला जीवेन प्राप्ता दुःखपरंपरा ।" इति वचनात् । अनेन संयोगः त्रिधा जितो यथा स्यात् तथैव प्रयतितव्यं भव्यजीवैः इति ॥२१-२४॥
प्रत्यक्ष ज्ञान से ही जाने जाते हैं । ये छहों स्कंध के भेद विभाब-पुद्गल ही हैं, न कि स्वभावपुदगल ।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि ये सभी पुद्गलस्कंध शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास, तथा सुख-दुःख, जीवन और मरण---इनके द्वारा जीवों का उपकार करते हैं, फिर भी ये जीव इस अपार संसार-महासमुद्र में क्षणमात्र भी स्वस्थता को नहीं प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि उनको अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ निराकुल सुख नहीं है | अतः इनके साथ का संपकं छोड़ने योग्य है। आचार्यों ने कहा भी है-"जीव ने जो दुःखों की परंपरा प्राप्त की है, उसका मूल कारण 'संयोग' ही है।" इसलिये इस पुद्गल का संयोग मन वचन काय पूर्वक जिस तरह भी छोड़ा जा सके, भव्य जीवों को वही प्रयत्न करना चाहिये।
भावार्थ-छहों द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य हो ऐसा है, जो स्पर्श रस गंध वर्ण वाला होने से चक्षुइंद्रिय आदि इंद्रियों से देखा और अनुभव किया जाता है । इस पुद्गल के परमाणु और स्कंध ऐसे दो भेद हैं । यहाँ पर स्कंध के छह 'कार बताये गये हैं और उदाहरण से उन्हें स्पष्ट भी किया गया है। इस स्कंध व्यवस्था को जानना इसलिये भी आवश्यक है कि ये रात दिन हमेशा ही संसार में अपने काम आ रहे हैं, इनके संपर्क से जो छूट चुके, वे संसार से परे मुक्त हो जाते हैं। इन पुद्गलस्कंधों से जब तक संबंध नहीं छुड़ाया जा सकता है, तब तक ही संसार में जन्म मरण के दुःख हैं, अत: इनसे छूटने के लिए सबसे पहले इनसे अपनत्व हटाना चाहिये, पुनः इनके प्रति अर्थात् शरोर आदि के प्रति जो ममत्व है उसे घटाते हुये हटाकर इनसे दूर होना चाहिये, इनसे छूटने का यही उपाय है ॥२१-२४।।