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उक्तं चाष्टसहरुयाम्
नियमसार- प्राभृतम्
"अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, वृर्णयस्तन्निराकृतिः ॥"
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द्रव्याथिक यस्य दशभेदानां मध्ये कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यग्राहको शुद्धद्रव्याथिको यथास्ति तथैव कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्य ग्राहकोऽशुद्धद्रव्यार्थिकोऽपि वर्तते । अतो अशुद्धद्रव्यार्थिकनयविवक्षया सकर्माणो सर्वेऽपि जीवाः विभावपर्यायरहिता: शुद्धद्रव्यानयेन च निष्कर्माणिश्च स्वभावपर्यायरहिता एव । पर्याय। थिकनयस्य षड्भेदानां मध्येऽपि कर्मोपाधिनिरपेक्षो नित्यः शुद्धपर्यायार्थिकनयोऽस्ति तथैव फर्मोपाधिसापेक्षोऽनित्यः अशुद्धपर्याप्रथिनयोऽपि विद्यते । ततः अशुद्धपर्यायार्थिकनयविवक्षया संसारिजीवाः स्वरवयोग्य विभावपर्यायैः सहिताः शुचपर्यायार्थिकनयेन च स्वभाव पर्यायसहिता एव ।
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उक्तं च नयचक्रे
अनेकान्तात्मक पदार्थ वा ज्ञान प्रमाण' है । रके व अंश का ज्ञान 'नय' है । यह अन्य धर्मों की अपेक्षा रखने वाला है और दुर्नय अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला है ।
१ सहस्र मूत्र पृ० २९०३
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द्रव्याथिक नय के दस भेद हैं । उनमें जैसे एक कर्मोपाधि-निरपेक्ष, शुद्धद्रव्य का ग्राहक, शुद्धद्रव्यार्थिक नय है, वैसे ही कर्मोपाधि की अपेक्षा रखने वाला, अशुद्ध द्रव्य का ग्राहक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय भी है । इसलिये अशुद्ध द्रव्याथिक नय की विवक्षा से कर्मसहित सभी संसारी जीव विभावपर्यायों से रहित हैं और शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से कर्मरहित सिद्ध भगवान् स्वभावपर्यायों से रहित हो हैं । ऐसे ही, पर्यायार्थिक नय के छह भेद माने हैं । उनमें जैसे कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय भी है । इसलिये अशुद्ध पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से संसारी जीव अपने-अपने योग्य विभाव- पर्यायों से सहित हैं और शुद्ध पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव स्वभावपर्यायों से सहित ही हैं ।
यही बात नयचक्र नाम के ग्रंथ में भी कही हैं-