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नियमसार-प्राभलमें इत्यनन्तरम् । विशेषो भेदः पर्याय इति पर्यायवाची शब्दः । तत्र सामान्य विषयों नयो द्रव्याथिकः। विशेषविषयः पर्यायाथिकः । तदुभयं समुदितं अयुतसिद्धरूपं द्रव्यं उच्यते। ततु प्रमाणस्य विषयो विकलादेशत्वान्नयाना, सकलादेशत्वात् प्रमाणस्यति ।
तात्पर्यमेतत्-जीवस्य स्वभावज्ञानदर्शनगणौ शद्धसिद्धजीवे स्तः स्वभावस्वात् । शद्धनयेन संसारिजीवेऽपि शक्तिरूपेण वा। तथा विभावज्ञानदर्शनानि संसारिजोवेष्वेव सन्ति न च मुक्तजीवे । अथवा कथंचित् भूतपूर्वनेगमनयापेक्षया वक्तुं युज्यते तत्रापि। कर्मोपाधिविरहितशद्धसिद्धपर्यायोऽपि सिद्धेष्वेव न च संसारिष, अथवा शद्धपर्याया थकनयेन शक्तिरूपेण वा तत्राप्यस्ति । तथवाशुद्धनरनारकाविपर्याया अपि चतुर्गतिसहितजीवेष्वेव, कथंचित भूतपूर्वनगमनयविवक्षया सिद्धष्वपि वक्त शक्यन्ते । इतिकथनेत सर्वेऽपि जीवा द्रव्यदृष्ट्या उभयपर्यायशन्या एव । पर्यायदृष्ट्या च उभयपर्याययुक्ता इति सूचिता भवन्ति ।
निर्गुण हैं, वे 'गुण' कहलाते हैं। और गण को विषय करने वाले तीसरे नय की भी जरूरत नही हैं, क्योंकि द्रव्य के दो स्वभाव हैं-एक सामान्य, दूसरा विशेष । उनमें से सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थवाची ही हैं। विशेष, भेद तथा पर्याय ये शब्द एकार्थवाची-पर्याय के वाचक हैं। अत: इनमें से जो 'नय' सामान्य को विषय करे वह द्रव्याथिक है और जो 'नय' विशेष को विषय करे बह. पर्यायार्थिक है । इन दोनों के समुदाय रूप, आपस में अभिन्न-तादात्म्य सिद्ध जो है, वही द्रव्य है । और यह द्रव्य 'प्रमाण' का विषय है। 'नय' विकल्प-अंश को कहने वाले हैं और 'प्रमाण' सकल अर्थात् गुणपर्यायरूप द्रव्य को कहने वाला है, ऐसा तत्त्वार्थवात्तिक में कथन है।
यहाँ तात्पर्य यह निकला कि जीव के स्वभावज्ञान, स्वभावदर्शन ये गुण हैं । ये शुद्ध जीव में रहते हैं, क्योंकि ये स्वभाव हैं। शुद्धनय की अपेक्षा अथवा शक्ति रूप से ये दोनों 'स्वभाव ज्ञानदर्शन' संसारी जीव में भी हैं। विभावज्ञान और विभावदर्शन संसारी जीवों में ही होते हैं, मुक्त जीव में नहीं । अथवा कथंचित् भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में भी इन्हें कहा जा सकता है ।
१. तत्त्वार्थवात्तिके, १० ५, सूत्र ३७, वत्र एवादृशो विषयो लभ्यते ।