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नियमसार-प्राभूतम् इतो विस्तर:-"द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रध्यार्थिकः पर्यायाथिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता" इति वचनात् द्वौ अपि नयौ कार्यकारिणौ । द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । अयं नयो द्रव्यमानमेव गृह्णाति जातुचिदपि न पर्यायान् गृह्णाति, न पश्यति, न लक्षयति, न च कथयति । सर्थव "पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । अयमपि नयः पर्यायमात्रमेव निगदति, कदाचिदपि द्रव्यं न गृह्णाति, न. पश्यपि, न लक्षयति; न च कथयति । फिश्च, सामान्यावशेषात्मकपदाथां: प्रमाणस्य विषयाः तदंशग्राहिणो नया धर्मान्तरापेक्षिणश्च, किंतु दुर्णयाः तत्प्रत्यनोकप्रतिक्षेपिणः ।। ये सभी जीव उन स्वभाव और विभाव पर्यायों से सहित हैं। यह गाथा का क्रियाकारक सम्बन्ध से अर्थ हुआ ।
अब विस्तार करते हैं
अर्हत भगवान् ने मूल में दो ही नय कहे हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । "उसमें भगवान् का उपदेश एक नय के आश्रित नहीं है, किंतु दोनों नयों के आश्रित ही है ।' ऐसा श्री अमृतचंद्रसूरि का कथन है। इसलिये दोनों ही नय कार्यकारी है। जिसका द्रव्य ही अर्थ यानी प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है । यह नय द्रव्यमात्र को ही ग्रहण करता है, पर्यापों को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करता है । न उन्हें देखता है न उनपर लक्ष्य देता है और न पर्यायों को कहता ही है। उसी प्रकार से जिसका 'अर्थ' यानी प्रयोजन पर्याय ही है, वह पर्यायाथिक नय है । यह नय भी मात्र पर्यायों को ही ग्रहण करता है-पर्यायों को ही कहता है । यह नय कदाचित् भी न द्रव्य को ग्रहण करता है, न देखता है, न लक्षित करता है और न कहता ही है । अर्थात् ये दोनों नय अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करते हैं, अन्य के विषय को नहीं।
दूसरी बात यह है कि पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक हैं, वे 'प्रमाण' के विषय हैं। उस पदार्थ के अंश को ग्रहण करने वाले ये नय अन्य धर्मों की भी अपेक्षा रखने वाले हैं, किंतु इससे भिन्त जो दुर्नय हैं, वे अन्य धर्मों का निराकरण करने वाले हैं । अष्टसहस्री ग्रन्थ में कहा भी है१. पञ्चास्तिकाय, गा० ४, श्रीअमृतचंद्रसूरिकृतीकायां ।