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नियमसार- प्राभृतम्
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सूक्ष्मपरायात् बुद्धिपूर्वक रागद्वे षादीनामभावात् कषायोदयसद्भावाच्च कथंचित् कर्तृत्वम्, अतः परमकर्तृ त्वमेव । केवलिनां साताप्रकृतिबंध सद्भावेऽपि तस्य कर्तृत्वमुपचारमात्रेणैव । तथैव सातासाता दिशुभाशुभकर्मोदयजनितसुखदुःखानां भोक्तृत्वं हर्षविषादादिरूपफलानुभवनप्रवृत्तिर्वा षष्ठगुणस्थान पर्यन्तम् अग्रे ऽप्रमत्तादिषु मोहनीयस्य रत्यरतिजनितरागद्वेषाभावे निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानबलेन निरुपरागस्वात्मोत्थसुखमनुभवन्त्यतस्तेषां बुद्धिपूर्वकं भोक्तृत्वं न घटते । कथंचित् अबुद्धिपूर्वकं सूक्ष्मसांपरायान्तं घटते सूक्ष्मलोभोदयसद्भावात् । ततः परं यद्यपि ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि क्षायोपशमिकरूपाणि आ क्षीणकषायात् एकदेशरूपेण आकुलत्वाभावलक्षणं सुखं तत्र घटते, किंतु सर्वथा अनाकुलत्वलक्षणं अतीन्द्रिय सुखं केवलिनामेव ।
तात्पर्यमेतत्-पद्यपि एष आत्मा कायवाङ्मनः कर्मयोगरहित सहजशुद्धद्रव्य
घटता है । आगे सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक रागद्वेषादि का अभाव है, और कषाय के उदय का सद्भाव है । अतः कथंचित् कर्तृत्व है, किंतु इसके आगे के गुणस्थानों में कर्तृत्व नहीं है । केवली भगवान् के भी साताप्रकृति का बंध होता रहता है । अतः यहाँ उनके भी कर्म का कर्तृत्व तो है, किंतु वह उपचार मात्र से ही है ।
इसी प्रकार साता - असाता आदि शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से हुए सुखदुःखों का भोक्तापना अथवा हर्षं विषाद आदिरूप फल का अनुभव करना छठे गुणस्थान तक है ही हैं। आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में मोहनीय के रति-अरति से होने वाले राग द्वेषादि का अभाव हो जाने से वहाँ वे महामुनि निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान के बल से रागरहित अपनी आत्मा से उत्पन्न हुए सुख का अनुभव करते हैं । इसलिये वहाँ बुद्धिपूर्वक कर्मफल का भोक्तृत्व नही घटता है। हां, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत उन मुनियों के कथंचित्- अबुद्धिपूर्वक कर्मफल- भोक्तृत्व घटित होता है, क्योंकि वहाँ पर भी सूक्ष्मलोभ का सद्भाव है। इसके आगे क्षीणकषाय तक यद्यपि ज्ञान दर्शन सुख और वीर्य ये क्षायोपशमिकरूप हैं, फिर भी उनमें एकदेशरूप से आकुलता के अभाव लक्षण वाला सुख घटित होता । किंतु सर्वथा अनाकुलता लक्षण वाला अतीन्द्रिय सुख तो केवली भगवान् को ही है ।
निष्कर्ष यह निकला कि यद्यपि यह आत्मा काय वचन और मन की