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नियमसार-प्राभृतम् कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च संघटते एव । किञ्च, अनेकान्तत्वात् न कश्चित् दोषोऽवतरति अस्माकम् ।
एष आत्मा यावन्मिथ्यादृष्टिस्तावदेकान्तेन द्रव्यभावरूपपुद्गलकर्मणां कर्ता तस्फलानां भोक्ता च भवति । तथापि पुदगलकर्मणां कर्ता भोक्ता निमित्तमात्रेणेव, न च उपादानरूपेण । यदा सम्यग्दष्टिर्भवति तदा नविभागेन स्वस्यात्मनः पुद्गलकर्मणां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च कथंचिन्मन्यते, शुद्धनिश्चयनयेन तु "परकर्तृत्वभोक्तृत्वस्वभावशून्योहम्' इति चिन्तयति । यदा अप्रमत्तादिगुणस्थानं समारोहति तदा शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धकस्वभावेन परिणममानः सन् बुद्धिपूर्वकं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च परिहरति । सूक्ष्मसापरायगुणस्थानात् परं तदुभयमपि न संभवति संपूर्णमोहनीयस्योदयाभावात् !
अथवा पुद्गलकर्मणां कर्तृत्वं रागद्वेषादिभावानामभावे न संभवति । षष्ठगुणस्थानान्तं बुद्धिपूर्वकरागद्वषावयः सन्ति तावत्पर्यन्तं कर्तत्वमपि घटते । अग्रे आ शुद्ध भावों का कर्तापना और भोक्तापना अच्छी तरह घटित हो जाता है। दूसरी बात यह है कि अनेकांत होने से हम जैनों के यहाँ कोई दोष नहीं आता है ।
यह आत्मा जब तक मिथ्यादृष्टि है, तब तक एकांत से पुद्गल कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता है। यह पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता निमित्तमात्र से ही हैं, उपादान रूप से नहीं । जब यही जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता . है, तब नय-विभाग से अपने को पुद्गलकर्मों का कर्ता और भोक्ता कथंचित् मानता है, वह शुद्धनिश्चयनय से तो 'मैं पर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व-स्वभाव से शून्य हूं' ऐसा चितवन करता है। और जब वही अप्रमत्तविरत आदि गुणस्थानों में चढ़ता है, तब शुभ अशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित होने से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव से परिणमन करता हुआ वहाँ पर बुद्धि-पूर्वक कर्ता-भोक्तापने का परिहार करता है, अर्थात् वहाँ ध्यान में बुद्धि-पूर्वक कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं रहता है । पुनः सूक्ष्मसापराय गुणस्थान के ऊपर यह कमों का कर्तृत्व भोक्तृत्व संभव ही नहीं, क्योंकि आगे संपूर्ण मोहनीय कर्म के उदय का अभाव है ।
___ अथवा पुद्गलकमों का कर्तापना राग द्वेषादि भावों के अभाव में संभव नहीं है । छठे गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष आदि हैं, वहाँ तक कर्तृत्व भी