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नियमसार- प्राभृतम्
पञ्चाशत् अष्टपंचाशत् द्विचत्वारिंशत् द्वादश प्रकृतीनां उदयमनुभयन्ति, अतः स्वस्वगुणस्थानयोग्योदयागतकर्मणां भोक्तारः कथ्यन्ते, व्यवहारनयेनैव ।
निश्चयनयात्तु कर्मोदयजनितमोहरागद्वेषादीनां तत्प्रदोषनिह्नव मात्सर्यान्तरायादीनामपि कर्तारो भवन्ति । इमे भावाः पूर्वसचितकर्मणामुवयात् जायन्तेऽतः कार्यरूपेण लक्ष्यन्ते; पुनश्च कर्मबंधं कारयन्ति अतः कारणान्यपि भव्यन्ते । सर्वे जीवाः पुद्गलकर्मोदयसमुद्भूतेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रिय विषयजनितसुखदुःखानि भुञ्जते । अथवा कर्मोदयवशादाविभू तहर्ष विषादपरिणामरूपं सुखदुःखं च भुञ्जते । अत्र निश्चय
न अशुद्धनिश्चयो गृह्यते कर्मोपाधिजन्यभावानां ग्राहकत्वात् । यतः कर्मोपाधिस - मुत्पन्नत्वादशुद्धः, तत्काले तप्तायः पिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय इत्युभयसंबंधेनाशुद्धनिश्चयो जायते । शुद्धनिश्चयेन तु सहजशुद्ध निजज्ञानदर्शन सुखवीर्य ससादिभावानामेव कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च ।
सभी जीव अपने-अपने गुणस्थान के योग्य उदय में आये हुए कर्मा के भोक्ता कहलाते हैं ।
ये सब कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से ही है ।
उदय
किंतु निश्चयनय से कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मोह, राग, द्वेष आदि भावों के और ज्ञान-दर्शन में किये गये प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के भी कर्ता होते हैं । ये सभी भाव पूर्व में संचित किये गये कर्मों के से होते हैं, अतः ये 'कार्यरूप' माने जाते हैं । पुनः ये आगे के लिये कर्म-बंध कराने वाले हैं। अतः ये कर्म के लिये 'कारण' भी कहलाते हैं। सभी जीव पुद्गल -कर्म के उदय से उत्पन्न हुए इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय के विषयों को और उनसे होने वाले सुख-दुःखों को भोगते हैं । अथवा कर्मोदय के निमित्त से प्रगट हुए हर्ष-विषाद परिणामों को और सुख-दुःखों को भोगते हैं, इसीलिये भोक्ता कहलाते हैं ।
यहाँ पर 'निश्चय' शब्द से अशुद्ध निश्चय लेना चाहिये
।
कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुए भावों को ग्रहण करने वाला है उपाधि से उत्पन्न हुआ होने से यह 'अशुद्ध' है और उस काल में के गोले के समान तन्मय होने से 'निश्चय' है । इन अशुद्ध और से यह 'अशुद्ध निश्चय' हो जाता है । शुद्धनिश्चय से तो यह निजज्ञान दर्शन सुख वीर्य सत्ता आदि भावों का ही कर्ता और भोक्ता है ।
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क्योंकि यह नय
क्योंकि कर्मों की
तपाये हुए लोहे
निश्चय के संबंध जीव सहज शुद्ध