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नियमसार-प्राभृतम् सम्मुख कृत्वा करणानुयोगबलेन चतुर्गतिभवभ्रमणात् बिम्यतः सन्त; चरणानुयोगाबलम्बनेन विकलं सकलं वा घरणमाचरन्ति त एव द्रव्यानुयोगाश्रयण स्वशुद्धात्मनि स्थित्वा सहजबिमलकेवलज्ञानाधनन्तचतुष्टयरूपनिजस्वभावमाप्नुवन्ति, इति सर्वतात्पर्येण करणानुयोगोऽपि अभ्यसनीयो भवति ।
___ यद्यपि इमे विभावपर्याया अनादिसंसारात् जीवैः सह संबद्धाः, जीवाश्च एभिः साध क्षीरनीरसंश्लेषवत् एकीभूय तिष्ठन्ति, तथापि एतैः पृथक्कत शक्यन्ते । केन
से चतुर्गति के भवभ्रमण से डरते हुये चरणानुयोग के बल से एक दश अथवा महाव्रत रूप पूर्ण चारित्र को धारण कर लेते हैं, वे ही द्रव्यानुयोग के आश्रय से अपनी शुद्ध आत्मा में स्थित होकर सहज विमल केवलज्ञान आदि अनंतचतुष्टयरूप अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये सर्वथा तात्पर्य यही है कि करणानुयोग का भी अभ्यास करना चाहिये।
यद्यपि ये विभाव पर्यायें अनादिकाल से इस संसार में जीवों के साथ संबंधित ही हैं और जीव भी इन पर्यायों के साथ दध और पानी के समान एकरूप होकर रह रहे हैं, फिर भी इन पर्यायों से जीव को अलग करना शक्य है।
प्रश्न-किस उपाय से ?
उत्तर--स्वभाव-पर्याय के ज्ञान विशेष से ही इन्हें पृथक् किया जा सकता है, ऐसा निश्चय करके उनसे पृथक् करने के उपाय का श्रद्धान करना चाहिये और उसी मार्ग पर चलना चाहिये, यह अभिप्राय हुआ।
भावार्थ--यहाँ पर चारों गति के जीवों के ग्रंथकार ने संक्षेप से भेद किये। पुनः स्वयं उन्होंने ही अंतिम पंक्ति में कह दिया है कि "लोक विभाग'' ग्रन्थों से जानना चाहिये । ये कुन्दकुन्ददेव स्वयं षट्खण्डागम सूत्रों के तीन खण्ड पर परिकर्म नाम की विस्तृत टीका लिख चुके हैं और भव्यों को भी चारों अनुयोगों के अध्ययन की प्रेरणा दे रहे है । ऐसा समझना चाहिये।
टीका में जो मनुष्य, तिथंच, नारकी और देवों का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ किया है, वह सर्वथा लागू नहीं होता है । जैसे-गच्छतीति गौः, जो गमन करे, वह गाय है। यह मात्र व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है, ऐसा समझना । टोका में इन चारों