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नियमसार-प्राभृतम्
शुत्यादिक्रियासम्बन्धमन्तनिय बीव्यन्तीति देवाः, ते भवनवासियानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदात् चतुविषाः । भवनवासिनोऽपि असुरनागकुमारादयो वश प्रकाराः । व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषादयोऽष्टविधाः । ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रग्रहादयः पञ्चधा, वैमानिकाच द्वेषा - कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति ।
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एतेषां चतुर्गतिजीवानां इन्द्रियकाययोगादिप्रकारेण ये विशेषाः, द्रव्यक्षेत्र - फालभवभावरूपेण च यत्संसरणं तत्सर्वमपि करणानुयोगग्रन्थेषु वर्णितमस्ति । अत्र तु द्रव्यानुयोगे अध्यात्मप्राधान्यात् न प्रतन्यते । तथापि जीवस्या शुद्धपर्यायबोध मंतरेणापि तेभ्योऽपसतु न संभवति, इति तेषामपि यवनं संस्तु उपेक्षणीयम् । अथवा ये क्रमेण चतुरनुयोगानधीत्य प्रथमानुयोगाधारेण तीर्थंकरादिमहापुरुषाणामादर्श
द्रिय और सैनी चेंद्रिय के भेद से सात प्रकार के हैं । पुनः इनके पर्याप्त अपर्याप्त इन दो भेदों से चौदह प्रकार हो जाते हैं ।
द्युति-चमकना या क्रीड़ा करना आदि क्रिया के संबंध को अंतर्गत करके जो क्रीड़ा करते हैं वे देव हैं । उनके भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक की अपेक्षा चार भेद हैं । भवनवासियों में भी असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार- ये दस भेद हैं । व्यंतरों के किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ भेद हैं। ज्योतिषी के सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारका ये पाँच भेद हैं और वैमानिकों के इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद हैं ।
इन चारों गतियों के जीवों के इंद्रियों, काय, योग आदि के भेदों से जो अनेक भेद- विशेष हैं और जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव इन पाँच प्रकार के परिवर्तन से जीवों का संसरणरूप संसार है, यह सभी प्रकरण करणानुयोग ग्रन्थों में कहा गया है । यहाँ द्रव्यानुयोग के इस ग्रन्थ में अध्यात्म की प्रधानता होने से उनका विस्तार नहीं किया है ।
फिर भी जीव की अशुद्धपर्याय को जाने बिना भी उनसे छूटना संभव नहीं है, इसलिये उन ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । अथवा जो क्रम से चारों अनुयोगों को पढ़कर प्रथमानुयोग के आवार से तीर्थंकर आदि महापुरुषों का आदर्श सामने रखकर करणानुयोग के बल