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नियमसार-प्राभृतम् प्रतिभागजाः' कुभोगभूमिजा वा उच्यन्ते । एते सर्वे भोगभूमिजमनुष्या एव । एतेष सर्वेषु भोगभूमिजेषु केवलं सुखमेव, सर्वत्र कर्मभूमिजेषु सुखं दुःखं च । उक्तं च श्रीयतिवृषभाचार्यः--
छब्बीसजुवेषकसयप्पमाणभोगविलादीण सुहमक्क । कम्मखिदीसुणगणं हवेवि सोक्खं च दुषखं च ॥ २९५४ ॥
अथवा मनुष्या विविधाः "आर्या म्लेच्छाश्च' ।।" ३६ ॥ गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्ते सेव्यन्ते इत्यार्याः, तेऽपि विधिधा:-ऋद्धिप्राप्तेतरबिकल्पात् । ऋद्धिप्राप्तार्या अष्टविधाः, बुद्धिक्रियाविक्रियातपोबलौषधरसक्षेत्रभेदात्। अनुद्धिप्राप्तार्याः पञ्चविधाः, क्षेत्रजातिकर्मचारित्रवर्शनभेदाच्च । म्लेच्छा अपि द्विविधाः
इन च्यानबे अंतर्वीपों में उत्पन्न हुए मनुष्य भोगभूमि-प्रतिभागज अथवा कुभोगभूमिज कहलाते हैं। इन सभी भोगभूमियों में केवल सुख हो है और सभी कर्मभूमियों में सुख और दुःख दोनों ही हैं ।
श्रो यतिवृषभाचार्य ने भी कहा है--
एक सौ छब्बीस भोगभूमियों में केवल सुख ही है और कर्मभूमियों में मनुष्यों के सुख तथा दुःख दोनों ही हैं।
___ अथवा मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-आर्य और म्लेच्छ । गुणों से या गुणवानों के द्वारा जो प्राप्त किये जाते हैं—सेवित होते हैं, वे आर्य कहलाते हैं । इनके भी दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य । ऋद्धिप्राप्त आयं (मुनि) के आठ भेद हैं--बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षेत्र इन आठ के आथित ऋद्धियों की अपेक्षा ऋद्धिप्राप्त आर्य-मुनि आठ प्रकार के होते हैं । ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकार के हैं-क्षेत्रार्य, जाति आर्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य।
म्लेच्छ के भी दो भेद हैं—अंतरद्वोपज और कर्मभूमिज ।
१. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ० २२२ । २. तिलोयपण्णप्ति, अ० ४, पृ० ५२७ । ३. तत्त्वार्थराजवातिक, अध्याय ३