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नियमसार-प्राभूतम् विदेहेषु तदन्तर्गतषष्टयुत्तरशतविवेहाः सन्ति, तत्रस्थषष्टिशतार्यखंडेषु जातास्तत्रैव षष्टिशतविजयार्ध-पर्वतानामुभयश्रेणिपूत्पन्नाश्च विद्याधरमनुष्याः, कर्मभूमिप्रतिभागजा'ष्टशतम्लेच्छखण्डेषूद्भवा म्लेच्छमनुष्याश्च संति । अत्र सर्वत्रापि शाश्वतकर्मभूमिव्यवस्था वर्तते । तथैव पंचभरतेषु पंचैरावतेषु दशार्यखण्डोद्भवाः, दशविजयापर्वतानां दक्षिणोत्तरश्रेणिषु उत्पन्नास्तत्रस्थपंचाशम्लेछखंडेषु जाताश्चापि मनुष्याः संति । भरतरावतयोः षटकालपरिवर्तनं जायते । अत्रस्थरजताचलेषु म्लेच्छखण्डेषु च चतुर्थकालस्यादितोऽन्तपयंत परिवर्तन भवति, न च षटकालपरिवर्तनम् । इमे सम्दिताः सप्तत्युत्तरशतकर्मभूमिप्रभवाः सर्वे मनुष्याः कर्मभूमिजाः कथ्यन्ते।
हैमवतहरिवेवकुरुत्तरकुरुरम्यकहरण्यवतक्षेत्राणि पंच पंच संति । येषु त्रिशरक्षेत्रद्भवा मनुष्या भोगभूमिजा आल्यायन्ते | लवणसमुद्रेऽष्टचत्वारिंशद् अंतर्वीपाः संति, कालोदसमुद्रेऽप्यष्टचत्वारिंशत् च । एतेषु षण्णवत्यंतोपेषु जाता मनुष्यास्ते भोगभूमिअंतर्गत एक सौ साठ विदेह क्षेत्र हो गये हैं। उनमें एक सौ साठ आर्यखण्डों में उत्पन्न हुए और वहीं पर जो एक सौ साठ विजयार्ध पर्वत हैं, उनकी दक्षिण-उत्तर दोनों श्रेणियों में उत्पन्न हुए विद्याधर मनुष्य हैं । और कर्मभूमि-प्रतिभागज आठ सौ म्लेच्छ खण्डों में होने वाले म्लेच्छ मनुष्य होते हैं । इन सभी जगह भी शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है । उसो प्रकार पाँच भरत और पाँच ऐरावत के आर्यखण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य, इन्हों के दश विजयार्ध पर्वतों की दक्षिण-उत्तर श्रेणियों में उत्पन्न हुए विद्याधर और वहीं के पचास म्लेच्छ-खण्डों में होने वाले भो मनुष्य होते हैं। इन भरत-ऐरावत में षट्काल परिवर्ततन होता है। यहीं के विजया पर्वत पर और म्लेच्छ खण्डों में चौथे काल की आदि से लेकर अंत तक परिवर्तन होता है, यहाँ छह काल परिवर्तन नहीं है। ये सब मिलकर एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में होने वाले सभी मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं।
हैमवत, हरि, देव कुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत ये छहों क्षेत्र पांचपांच हैं । इन तीस क्षेत्रों में उत्पन्न हुये मनुष्य भोगभूमिज कहलाते हैं। लवण समुद्र में अड़तालीस अंतर्वीप हैं और कालोद समुद्र में भी अड़तालीस अंतर्वीप हैं।
१. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पु० २२२ । २. तिलोयपपत्ति पु. ३५३ ।