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नियमसार-प्राभृतम् केवलिनश्च सहजस्वाभाविकानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपेण परिणतत्वात् शुखा एव, अतः तेषां मनुष्यपर्यायरूपेण विभावपर्यायस्यास्तित्वमात्रमेव इति । . भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनः सर्वकर्ममलकलङ्कविकलत्वात शुद्धसिद्धपर्यायणैव परिणमन्तः सन्तः शश्वत् तिष्ठति । अतः शुद्ध सिद्धपर्याय एव उपादेय इति श्रद्धातव्यः, तथाशद्धमनुष्यपर्याय स्थित्वापि "सिद्ध सशोऽहं" शुद्धनयेन इति भावनीयः ॥१५॥ ... अधुना सर्वसंसारिजनसलमत्वात् स्पष्टत्वाध चतुर्गतिभ्रमण रूपेण विभावपर्यायान् विवृण्वन्ति श्री. कुंकुंददेवा:
माणुस्सा दुवियप्या कम्ममहीभोगभूमिसंजादा ।
सत्तविहा रइया णादब्बा पुढविभेएण ॥१६॥ भाविक अनंतज्ञान ५६ मुख दी. वरूप परिणत हो जाने से शुद्ध ही हैं । अतः उनके जो मनुष्यगति आदि पर्याय रूप से विभावपर्यायें हैं वह केवल अस्तित्व मात्र से ही हैं । अर्थात् नाममात्र से ही हैं ।
भगवान् सिद्धपरमेष्ठी सर्वकर्ममल कलंक से रहित होने से शुद्ध सिद्धपर्यायरूप से ही परिणमन करते हुए सदाकाल रहते हैं । अतः शुद्ध सिद्धपर्याय ही उपादेय है, ऐसा श्रदान करना चाहिये, तथा अशुद्ध मनुष्य पर्याय में रहते हुए भी शुद्धनय से "मैं सिद्ध सदृश हूं" ऐसी भावना करनी चाहिये ।
भावार्थ-...यहाँ पर ग्रन्थकार ने चारों गतियों को विभाव पर्याय कहा है । इस दृष्टि से अहंत भगवान के भी मनुष्यगति होने से वे भी विभावपर्याय सहित हों जाते हैं, किंतु नयविवक्षा से टोका में इस बात को स्पष्ट किया है कि छठे गुणस्थान तक के जीव निश्चयनय से "अपनी आत्मा विभाव पर्याय से रहित है" ऐसा श्रद्धान मात्र करते हैं। आगे शद्वोपयोगी महामुनि अपने उपयोग में आत्मा का हो चितवन करने से उन विभाव पर्यायों से उपयोग में नहीं लाते हैं । अत: वे उपयोग से पृथक् करते हैं। इसके आगे अहंत भगवान् साक्षात् अनंतचतुष्टय के धनी हैं। अतः उनके भी ये विभाव पर्याय नहीं हैं, फिर भी मनुष्य गति, आयु, शरोर आदिरूप से उनका अस्तित्वमात्र है। यहाँ टीका में अर्थव्यंजन पर्यायों का भो अन्य ग्रन्थों के आधार से संक्षिप्त कथन किया गया है ॥१५॥
अब श्रीकुंदकूद देव सर्व संसारी जावो को सुलभ होने से और स्पष्ट होने से चारों गति के भ्रमण रूप जो विभाव पर्यायें हैं, उनका विवेचन करते हैं
अन्वयार्थ (माणुस्सा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा) मनुष्य कर्मभूमि में