________________
नियमसार-प्रामृतम् पर्यापतयस्वरूपं निरूपयन्तो भगवन्तो अन्ति--- णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। . कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भाणदा ॥१५॥
विभावमिदि भणिदा-विभावा इति भणिताः । स्वभावादन्यथाभवनं विभाव-इत्याख्यया कथिताः । के ? ते पज्जाया-ते पर्यायाः । कथंभूतास्ते ? णरणारयतिरियसूरा-नरनारकतिर्यकसुराः । नरनारकतिर्यग्देवगतिनामकर्मोदयेन समुद्रवाश्चतुर्गतिस्वरूपाः, न चैते शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जननिर्विकारज्ञानदर्शनलक्षणजीवस्यभावा इति । तथा च सहावमिदि भणिवा-स्वभावा इति भणिताः, स्वस्माद् भवाः स्थभावाः स्वस्य भावाः परिणामा वा इति कथिताः। के ते? ते कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया-ते कर्मोपाधिविजितपर्यायाः । कर्मणामुपाधिः, कर्म एव .वा उपाधिः तेभ्यो विजिताश्च ते पर्यायाः । इमे विभावस्वभावपर्यायाः कैणिताः ? पञ्चसंसारसंसरणकारणरागद्वेषाधिविभावभावविरहितसर्वज्ञदेवैभणिताः । स्वभावपर्यायाः
भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव दोनों पर्यायों का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ--(णरणारयतिरियसुरा) जो नर, नारक, तिथंच और देव (पज्जया) पर्यायें हैं (ते विभाव मिदि भणिता) वे विभात्र इस नाम से कही गई हैं। (कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया) और जो कर्मों की उपाधि से रहित पर्यायें हैं (ते सहाबमिदि भणिदा) वे स्वभाव इस नाम से कही गई हैं ॥१५॥
जो स्वभाव को छोड़कर अन्यरूप से होती हैं, वे मनुष्यगति, नरकति, तियंचगति और देवगति इन चार गतिरूप 'नाम कर्म' के उदय से मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव अवस्थारूप विभाव पर्याय हैं। ये शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन निविकार' ज्ञानदर्शन लक्षण वाले जीव की स्वभाव नहीं हैं । और जो अपने से ही उत्पन्न होती हैं अथवा आत्मा का ही स्वभाव-परिणाम हैं, वे स्वभाव पर्यायें हैं, ये कर्मों के संपर्क से रहित होती हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार के संसार में भ्रमण कराने वाले राग-द्वेष आदि विभाव-भावों से रहित सर्वज्ञ भगवान ने इन पर्यायों का स्वरूप कहा है।
। इनमें से जो स्वभावपर्यायें हैं वे शुद्ध हैं और जो विभावपर्यायें हैं बे अशुद्ध हैं। अथवा अर्थपर्याय और व्यंजन-पर्याय की अपेक्षा भी पर्यायें दो प्रकार की हैं।