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नियमसार-प्राभुतम शुद्धाः, विभावपर्यायाश्चाशुद्धाः । अथवा अर्थव्यञ्जनभेदात् पर्यायो द्वधा । अर्यते गम्यते निश्चीयतेऽनेनेति अर्थपर्यायः । व्यज्यते प्रकटोक्रियते अनेनेनि व्यजनपर्यायः । प्रत्येकमपि स्वभावविभावभेदात् द्विधा च । स्वभावार्थपर्यायाः द्वादशधा षड्बुद्धिरूपाः षड्ढानिरूपाः । विभावार्थपर्यायाः षड्विधा मिथ्यात्वकषायरागद्वेषपुण्यपापरूपाध्यवसायाः' । कर्मोपाधिविवजितसिद्धपर्यायः स्वभावव्यन्जनपर्यायः, नरनारकाविरूषा विभावव्यञ्जनपर्यायाश्च ।
इमे विभाथपर्याया आ अयोगकेवलिनः मनुष्यगत्यायुरादिविद्यमानत्वात् । सिद्धा एवं स्वभावपर्यायपरिणताः सन्ति । शुद्धनयापेक्षया तु भव्याभव्यानां सर्वसंसारिणामपि विभाषपर्याया न संति । सरागसम्यग्दृष्टयः निश्चयनयेन सम्यग्निजतत्वश्रद्धानात् स्वात्मनः विभावपर्यायाद भिन्नं केवलं श्रद्दधते । वीतरागधारित्रावलम्बिनों वीतरागसम्यग्दृष्टयो निर्विकल्पसमाधौ स्थिस्था स्वोपयोगात् तं पृथक् कुर्वन्ति । सयोगजिसके द्वारा जाना जाता है.--निए किया जाता है, वह 'अर्थ पर्याय' है । जिसके द्वारा व्यक्त होता है-प्रगट किया जाता है, वह 'व्यंजन पर्याय' है। ये दोनों ही स्वभाव व बिभावके भेद से दो-दो प्रकार हैं । 'स्वभाव अर्थपर्याय' बारह STकार की हैं--छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप हैं। विभाव अर्थपर्याय छह प्रकार को हैं—ये मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य और पाप रूप परिणाम हैं। कर्मों की उपाधि से रहित जो सिद्धपर्याय है यह स्वभाव व्यंजन पर्याय है। नर नारक आदि रूप विभाव-व्यंजन पर्यायें हैं।
ये विभावपर्याय 'अयोग केवली' भगवान् तक अर्थात् चौदहवें गुणस्थान तक रहती है, क्योंकि वहाँ तक मनुष्य गति, मनुष्य आयु आदि विद्यमान हैं। इसके आगे सिद्ध भगवान् ही स्वभाव-पर्याय से परिणत है। शुद्धनय की अपेक्षा से तो भव्य और अभव्य सभी संसारी जीवों के भी विभावपर्याय नहीं हैं।
सरागसम्यग्दष्टि-चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानवी जीव निश्चयनय से समीचीन निज तत्त्व का श्रद्धान करने से अपनी आत्मा को विभाव पर्याय से भिन्न केवल श्रद्धान करते हैं। वीतराग चारित्र का अवलम्बन लेने वाले वीतराम सम्यग्दृष्टि महामुनि निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपने उपयोग से उस विभाव पर्याय को पृथक् करते हैं । और सयोग केवली अर्हत् भगवान् सहज स्वा1. भातापपति, • रतनचन्द्र पारा सम्पादित ।