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नियमसार-प्राभृतम तद्यथा-बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायो परिणाम उपयोगः, स तु जीवस्य लक्षणं, जीवो लक्ष्य इति । 'परस्परच्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम' एतवात्मभतं वर्तते अग्नेरौष्ण्यमिव । जीवो गणो धर्मी वा, अयमुपयोगी गुणो धर्मों वा इति । उपयोगो या ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च । अत्र ज्ञानोपयोगो मुख्यरूपेण द्विविधः, स्वभावविभावभेदात् । अनयोर्लक्षणं सूत्रद्वयन सूचयन्ति स्वयं ग्रन्थकाराः ।
यद्यपि आनिगोदजीवात सिद्धराशि यावत सर्वे जीवा: सामान्येन ज्ञानदर्शनस्वभावारतथापि विशेषापेक्षया मिथ्यात्वगुणस्थानात् क्षीणकषायपर्यन्ता विभावज्ञानदर्शनवन्तः, ततः परं स्वभावज्ञानदर्शनवन्त एव । अथवा शुद्धनिश्चयनयेन सर्वे जीवाः स्वभावज्ञानवर्शनोपयोगमयाः सन्तोऽपि अशुद्ध नयेन संसारिणो विभावज्ञानदर्शनाभ्यां परिणता एवं तप्ताय:पिण्डवत् ।
उसी को कहते हैं-बाह्य और आभ्यंतर दोनों हेतुओं के मिलने पर यथासंभव आत्मा का चैतन्य से अनुस्यूत सहित परिणाम उपयोग है। यही जीव का लक्षण है, और जीव लक्ष्य है। परस्पर मिले रहने पर जिसके द्वारा पृथक् लक्षित किया जाय वह लक्षण है । यह आत्मभूत लक्षण है जैसे अग्नि को उष्णता । यहाँ पर जीव गुणी अथवा धर्मी है और यह उपयोग गुण अथवा धर्म है ।
इस उपयोग के दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। इसमें भी ज्ञानोपयोग मुख्यरूप से स्वभाव-विभाव की अपेक्षा दो प्रकार का है। इन दोनों का लक्षण आगे दो गाथाओं में स्वयं ग्रन्थकार कहेंगे ।
यद्यपि निगोद जीवों से लेकर सिद्धराशि जीव पर्यंत सभी जीव सामान्य से ज्ञान दर्शन स्वभाव वाले हैं फिर भी विशेष की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुण स्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत जीव विभावज्ञान-दर्शन वाले हैं। इससे आगे के जीव स्वभावज्ञानदर्शन वाले ही हैं। अथवा शुद्धनिश्चयनय से सभी जीव स्वभाव ज्ञानदर्शनोपयोगमय होते हुए भी अशुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव विभावज्ञान और विभाव दर्शन में परिणत ही हैं। तपाये हुए लोह पिंड के समान ।