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नियमसार-प्राभृतम् विभावज्ञानस्य प्रथमविकल्पः संज्ञानं तत्कतिविध ? सग्णाणं चउभेदंसंज्ञानं चतुर्भेदम् । किनामानि ? मदिसुदओही तहेव मणपज्ज-मतिश्रुतावधयस्तथैव मनःपर्ययम् । इतरच्च कतिप्रकारम् ? अण्णाण तिबियप्प-अज्ञानं त्रिविकल्पम । केन प्रकारेण ? मदियाई भेददो चेव-मत्यादेभेदतः चैव कुमतिकुश्रुतविभंगावधिभेदतः त्रि प्रकारम।
तद्यथा-विभावज्ञानं सम्यक्त्वसहचारित्वात् समीचीनत्वं प्रतिपद्यते, मिथ्यात्य सहचारित्वात मिथ्या अज्ञानं वाजायते । फेवलज्ञानवर्शनमयोऽपि अयमात्मा अनादिकर्मबंधनवशात् बाह्याभ्यन्तरहेतुत्यसन्निधाने सति येन जानाति तज्ज्ञानं भण्यते । अभ्यन्तरे मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाद् वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च बहिरने पंचेन्द्रियमनोऽवलम्बाच्च मूर्तामूर्त वस्तु अस्पष्टतया यज्जानाति तन्मतिज्ञानम् । परमार्थतः परोक्षमपि इदं तर्कशास्त्रानुसारेण सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष गीयते । अभ्यन्तरे श्रतज्ञानावरणक्षयोपशमान्मनइन्द्रियावलम्बनाचच बहिरङ्ग प्रकाशोपाध्यायाविसहकारिकारणाच्च मूर्तामूर्त वस्तु अस्पष्टं यज्जानाति तछु तज्ञानम् । तत्र शब्दात्मक
विभावज्ञान के पहले भेद का नाम संज्ञान है-उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये चार भेद हैं और विभावज्ञान के द्वितीय भेद का नाम अज्ञान है, इसके कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि नाम से तीन भेद हैं।
इसका विस्तार-विभावज्ञान सम्यक्त्व का सहचारी होने से समीचीनता को प्राप्त हो जाता है और मिथ्यात्व के साथ रहने से अज्ञान या मिथ्याज्ञान रूप हो जाता है । यद्यपि यह आत्मा केवलज्ञानदर्शनमय है फिर भी अनादिकर्मबंध के निमित्त से बाह्य और अभ्यंतर इन दो हेतुओं के होने पर जिसके द्वारा जानता है वह ज्ञान कहलाता है । अभ्यन्तर में मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और बीयान्तराय कर्मके क्षयोपशम से तथा बहिरंग में पाँच इन्द्रिय और मन के अवलम्बन से जो भर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्टरूप से जानता है वह मतिज्ञान है। यह ज्ञान यद्यपि परमार्थ से परोक्ष है फिर भी तर्कशास्त्र के अनुसार सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है । अभ्यंतर में श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से और मन के अवलंबन से तथा बहिरंग में प्रकाश, उपाध्याय आदि सहकारी कारणों के मिलने से जो मूर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्ट जानता है वह श्रुतज्ञान है । उसमें से जो शब्दरूप श्रुतज्ञान हैं, वह परोक्ष