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नियमसारप्राभृतम् अथ रामेदं ज्ञानोपयोग प्रतिपाद्य सूत्रस्य पूर्वाधन दर्शनोपयोगभेदान् उत्तरार्धेन च स्वभावदर्शनं प्रतिपादयन्त्याचार्याः।
तह दसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥१३॥
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो-तथा ज्ञानोपयोगसदृशः स्वस्वभावैतरविकल्पतो द्विविधः स्वभावदर्शनविभावदर्शनभेदाभ्यां द्विप्रकारः । कि लक्षणं स्वभावदशेनं १ केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं-केवलमिन्द्रियहितमसहायं तत्स्वभावमिति भणितम् । फैणितं ? सर्वज्ञदेवैः इति ।
सद्यथा-यद्यपि आत्मा त्रैलोक्योदरतित्रिकालजातसकलवस्तुसामान्यग्राहकसकलविमलकेवलदर्शनस्वभावस्तथापि संसारे अनादिकर्मबंधनबद्धस्सन काललध्यादिवशन यदा सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसंवित्तिप्राप्तिबलेन केवलदर्शनाधरणसंक्षये
भेद सहित ज्ञानोपयोग का प्रतिपादन करके अब आचार्य गाथासूत्र के पूर्वाध से दर्शनोपयोग के भेदों का और गाथासूत्र में उत्तराधे से स्वभावदर्शन का प्रतिपादन करते हैं
अन्वयार्थ--(तह ससहावेदरवियप्पदो दसणउवभोगो दुविहो) वैसे ही स्वभाव और विभाव के भेद से दर्शनोपयोग भी दो प्रकार है। (इंदियरयिं असहाय) जो इंद्रियों से रहित और असहाय है (तं केवलं सहावमिदि भणिद) वह केवलदर्शन स्वभाव दर्शन कहा गया है ।॥१३॥
उस ज्ञानोपयोग के सदृश ही यह दर्शनोपयोग भी 'स्वभाव दर्शन' और 'विभावदर्शन' के भेद से दो प्रकार हैं । जो केवल है, इंद्रिय-रहित है और असहाय है वह स्वभावज्ञान है ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है ।
___ इसका विस्तार करते हैं--यधपि यह आत्मा तीन लोक के अंतर्गत त्रिकालवर्ती संपूर्ण वस्तुओं के सत्ता-सामान्य को ग्रहण करने वाले ऐसे सकल विमल केवलज्ञान स्वभाव वाला है, फिर भी संसार में अनादिकालीन कर्मबंधन से सहित होता हुआ काललब्धि आदि के वश से जब सहज शुद्ध सदा आनंद एक स्वरूप ऐसे परमात्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है तब उस अनुभव के बल से 'केवल