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नियमसार-प्राभृतम् वधिमर्याक्तिमेव जानाति, अतो विफलप्रत्यक्ष कथ्यसे ।
__मतिश्रुतावधिज्ञानान्यध मिथ्यात्ववशेनाज्ञानानि भवन्ति । कथमेतत् ? उच्यते; यथा सरजसकटुकालाबूपाने निहितं पयः स्वगुणं परित्यजति तथा इमानि मत्यादीनि मिथ्यावृष्टिभाजनगतानि दुष्यन्ति इति । ननु च मणिकनकादयो वर्चीगृहगता अपि स्वभावं न त्यजन्ति तद्वन्मत्यादीन्यपि कथं न स्युः ? सत्यमुक्तं भवता, परं श्रूयताम् । यद्यपि ध!गृहं मण्यादीनां विकारं नोत्पादयितुमलं, तथापि विपरिणामकद्रव्यसन्निधाने तेषामपि भवत्येवान्पथात्वम् । तथैव परिणमनशीलवस्तून्यपि शक्तिविशेषादन्यथा भवितुमर्हन्ति, अतो दर्शनमोहोदये सति अमूनि ज्ञानान्यपि अन्यथा परिणमन्तीति नास्ति दोषः ।
ज्ञेय पदार्थ को नहीं जानते हैं। प्रत्युत कुछ-कुर पयों से मु, मूर्तिक, देश और काल की अवधि से मर्यादित पदार्थों को ही जानते हैं, अत: विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
ये मति, श्रुत, अवधि ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से अज्ञान हो जाते हैं। ऐसा क्यों ? सो ही कहते हैं-जैसे रज सहित कडुवी तुंबी में रखा हुआ दूध भी अपने गुण को छोड़ देता है, वैसे ही ये भी मति आदि ज्ञान मिथ्यादृष्टिरूप बर्तन में रहने से दूषित हो जाते हैं।
शंका-मणि, सुवर्ण आदि विष्ठागृह में गिर जाने पर भी स्वभाव नहीं छोड़ते हैं, उसी प्रकार मतिज्ञान आदि भी स्वभाव न छोड़ें ?
समाधान-आपने ठीक कहा है, फिर भी सुनिये ।
यद्यपि विष्ठागृह मणि, सोना आदि को विकारी-दूषित करने में समर्थ नहीं है फिर भी यदि उन्हें गलत परिणमन कराने वाला द्रव्य मिल जाय तो भी अन्यथा-विपरीत रूप हो जाते हैं। उसी प्रकार से अन्य भी परिणमनशील वस्तुयें शक्ति-विशेष से विपरीत हो जाती हैं। वैसे ही 'दर्शन मोहनीय' का उदय होने पर ये तीनों ज्ञान भी विपरीत परिणमन कर जाते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है ।
अब गुणस्थानों में विभाव ज्ञान को घटाते हैं
मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में तीनों अज्ञान रहते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में ये तीनों ज्ञान और अज्ञान मिश्रित रहते हैं। चौथे