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नियमसारप्रभृतम् श्रुतज्ञानं परोक्षमेव, जीवाजीवादिबाझविषयपरिच्छित्तिरूपं तदपि परोक्षमविशदस्वात् । यापुनः नाभ्यन्तरेवा सुयो जनो शेवानि विकल्परूपेण अथवानन्तज्ञानादिरूपोऽहमित्यादिप्रकारेण जायते तदीषत्परोक्षम् । यत्तु शुद्धात्माभिमुखसंवित्तिस्वरूपं भावश्रुतज्ञानं तदभेवनयेनात्मशब्दवाच्र्य वीतरागचारित्राविनाभूतं निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञान तत्तु प्रत्यक्ष भण्यते परमसमाधिरतानां स्वानुभवगम्यत्वात. तदेव स्वभावज्ञानस्य बीजभूतमिति ।
अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमानमूर्त वस्तु यवेकवेशप्रत्यक्षेण जानाति तदवधिज्ञानम् । तथैव मनःपर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च परकीयमनोगत मूर्तमथं यदेकवेशप्रत्यशेण जानाति तन्मनःपर्ययज्ञानम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि वस्तुतः परोक्ष संव्यवहारतः स्वसंवेदनात् च प्रत्यक्ष भवति । अवधिमन:पर्ययद्वयमपि विकल्पप्रत्यक्ष भवति । किं च स्वात्मोद्भवत्वात् प्रत्यक्षमपि तत्तदावरणक्षयोपशमापेक्षया सर्व ज्ञेयं न जानाति, प्रत्युत कतिपयपर्याययुक्तं मूर्त देशकालाही है और जो जीव अजीव आदि बाह्य पदार्थों के जाननेरूप है वह भी परोक्ष है क्योंकि अविशद' है । पुनः जो अभ्यंतर में "मैं सुखी हूं, अथवा दुःखी हूं' इत्यादि विकल्परूप से होता है। अथवा "में अनंत ज्ञान आदि रूप हूं' इत्यादि प्रकार से होता है "वह ईषत्, परोक्ष है।" और जो शुद्धात्मा की तरफ अभिमुख होकर उसके अनुभवरूप भावश्रुतज्ञान है, वह अभेदनय से "आत्मा" शब्द से वाच्य वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी, निर्विकल्प संवेदन ज्ञान है, यह प्रत्यक्ष कहलाता है, क्योंकि यह परमसमाधि में लीन हुए मुनियों को स्वानुभवगम्य हो रहा है, यही ज्ञान स्वभावज्ञान-केवलज्ञान के लिये बीज है ।
अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्तिक वस्तु को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह अवधिज्ञान है । उसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञानावरण कम के क्षयोपशम और बीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो परके मन में स्थित मूर्तिक पदार्थ को प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों वास्तव में परोक्ष हैं । किंतु संव्यवहार से और स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । बात यह है कि ये दोनों ज्ञान अपनी आत्मा से उत्पन्न होते हैं । अतः प्रत्यक्ष हैं, फिर भी अपने अपने आवरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से संपूर्ण