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नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च पञ्चास्तिकायग्रन्थे
अपणोणं पविसंता दिता उग्गासमण्णमण्णस्स।
मेलंताधि य णि सगं सहावं ण विजर्हति ॥७॥ तात्पर्यमेतत्-यावदयं जीवः चिच्चैतन्यचिन्तामणिरूपं निजस्वभावं न जानाति न च श्रद्धत्ते तावन्मिथ्यादृष्टिः । यदा च जानाति श्रद्दधाति तदा सरागसम्यग्दृष्टिः सन् नियमबलेन वीतरागचारित्राविनाभूतवीतरागसम्यग्दृष्टिः भूत्वा निर्विकल्पसमाधो स्थित्वा स्वस्वभावमेवानुभवति, तदैव स्वस्थो भवति इति निश्चित्य स्वारमन्यविचलस्थितिविधातव्या, तच्छक्त्यभावे विशुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपनिजशुद्धात्मतस्वभावना कर्तव्या ॥९॥
___ एवं आप्तादिश्रद्धानरूपसम्यग्दर्शनमुख्यत्वेन सत्याप्तस्वरूपकथनेन चैका गाथा, अष्टादशदोषकथनत्वेन द्वितीया गाथा, परमात्मस्वरूपप्रतिपादनत्वेन तृतीया गाथा, आगमलक्षणकथनत्वेन तत्वार्थस्य सामान्यलक्षणत्वेन च चतुर्थी गाथा, तत्त्वार्थ
पंचास्तिकाय ग्रन्थ में कहा भी है...
"ये सभी द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हुए और एक दूसरे को अवकाश देते हुए तथा परस्पर में मिलते हुए भी सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
__ अभिप्राय यह निकला कि जब तक यह जीव चित् चैतन्य चितामणिरूप अपने स्वभाव को नहीं जानता है और न श्रद्धान करता है तब तक यह मिथ्यादृष्टि है और जब वह जानता है, श्रद्धान करता है तब सराग सम्यग्दृष्टि होता हुआ रत्नत्रय के बल से वीतराग चारित्र से अविनाभूत ऐसा बीतराग सम्यग्दृष्टि होकर निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपने स्वभाव का ही अनुभव करता है तभी स्वस्थ हो जाता है। ऐसा निश्चय करके अपने आत्मा में निश्चल ध्यान करना चाहिये और जब तक ऐसी शक्ति नहीं प्राप्त हो तब तक विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप निजशुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करनी चाहिये ।
इस प्रकार आप्तादि के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन की मुख्यता से और सच्चे आप्त का स्वरूप कहने से एक गाथा हुई। अठारह दोषों को कहने रूप से दूसरी गाथा हुई। परमात्मा के स्वरूप को कहने वाली तीसरी गाथा हुई। आगम का लक्षण कहने रूप और तत्त्वार्थ का सामान्य लक्षण कहते हुए चौथी गाथा हुई । १. पंचास्तिकाय ।