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नियमसार- प्राभूतम्
तच्चत्था इदि भणिदा-तस्वार्थाः इति नामभिः भणिताः । के ते ? जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं जीवाः धर्माधर्मौ च काल: आकाशं जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकाला एते षट् प्रकाराः । कः पुद्गलकायाः । भणिताः ? चतुर्ज्ञानधारिभिः । कथम्भूतास्ते ? णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता-ने -नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः इति क्रियाकारक संबन्धः ।
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तद्यथा-- - ज्ञानदर्शन सुख सत्ताविलक्षणभावप्राणैः इंद्रियबलायुरुच्छ्वास लक्षणद्रव्याणैश्च जीवति बोधिव्यक्ति जीवितपूर्वा वा जीवाः । शुद्धजीवा मुक्तास्ते भावप्राणैरेव जीवन्ति, अशुद्धजीवाः संसारिणस्तेऽपि शुद्ध निश्चयनयेन शुद्धचैतन्यप्राणैरशुद्ध निश्चय न येता शुद्धमतिज्ञानादिचेतन्यप्राणैः व्यवहारनयेन द्रव्यप्राणैश्च त्रिकालं जीवन्ति । पूरणगलनस्वभावत्वात् पुद्गलाः, पुंगिलनाद्वा, पुम्भिः जीवैः शरीराहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्ते इति पुद्गलाः, ते च ते काया इव बहुप्रदेशत्वात् पुद्गलकायाः । स्वयं क्रियापरिणामिनां जीवपुद्गलानां साचिव्यं
जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को "तत्त्वार्थ" इस नाम से चार ज्ञानधारी गणधरदेव आदि ने कहा है । ये अनंतगुण पर्यायों से सहित होते हैं। यह क्रिया कारक सम्बन्ध हुआ ।
उसी को कहते हैं -- जो ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि लक्षण द्रव्य प्राणों से जीते हैं, जियेंगे और जीते थे, वे "जीव" हैं । शुद्ध जीव मुक्त हैं, वे भाव प्राणों से ही जीते हैं । अशुद्ध जीव संसारी हैं वे भी शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध चैतन्य प्राणों से, अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध मतिज्ञान आदि चैतन्य प्राणों से तथा व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य प्राणों से तीनों काल में जीते हैं ।
पूरण गलन स्वभाव वाले होने से पुद्गल हैं । अथवा पुरुष द्वारा गिले जाने से पुद्गल हैं- पुरुष - जोव, इन जीवों द्वारा आहार, शरीर, पंचेन्द्रियों के विषय, इन्द्रियाँ आदि रूप से गिले जाते हैं— ग्रहण किये जाते हैं इसलिए ये पुद्गल कहलाते हैं । ये पुद्गल कार्य के सदृश बहुप्रदेशी होने से पुद्गलकाय कहलाते हैं ।
जो स्वयं क्रियारूप से परिणामी जीव - पुद्गलों को सहायता देता है वह धर्म द्रव्य है । इससे विपरीत अर्थात् जीव पुद्गलों को ठहरने में सहायता करता