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नियमसार-प्राभृतम् अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदन्यतिरेकात् । "तत्त्वमेवार्थस्तरघार्थः।" परमार्थभूतपदार्थाः इति यावत् । अत्र तत्त्वार्थशब्देन व्याणि इति अभिप्रायो ग्रन्थकर्तृणाम्, यक्ष्यन्ते च "एदे छहव्याणि य" (गाथा ३४) इति ।
एतदुक्तं भवति–जिनबरवदनारविन्दविनिर्गतवचनं पौर्वापर्याविरुद्ध निष्कलङ्क तदेव आगमः, तेन कथितास्तत्त्वार्थाः भवन्ति । इति श्रद्दधानः भव्यः सकलविमलकेवलज्ञानस्य बीजभूतं स्वात्माभिमुखसंवित्तिस्वरूपं भावश्रुतमेवादेयं कृत्वा द्रव्यश्रुताधारेण निजशुद्धपरमात्मसत्त्वं सततं भावनीयम् । अथ के च ते तत्वार्थाः किस्वरूपाश्च ? इत्याशङ्कायां बुबम्ति
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं ।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥९॥ पर्यायों को प्राप्त करता है या जो गुण पर्यायों से प्राप्त किये जाते हैं वे ''अर्थ' कहलाते हैं-इन्हें ही द्रव्य कहते हैं । तत्त्वरूप जो अर्थ है वह तत्वार्थ है । अथवा भाव से भाववाले को कहना तत्त्वार्थ है, क्योंकि ये दोनों परस्पर में अभिन्न हैं। या तत्त्व ही अर्थ है वही तत्त्वार्थ है मतलब परमार्थभूत पदार्थ को अर्थ कहते हैं । यहाँ पर तत्त्वार्थ शब्द से द्रव्यों को लेना ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्ददेव का ऐसा अभिप्राय हैं क्योंकि आगे बे ३४ वीं गाथा में "ये छह द्रव्य हैं" ऐसा कहेंगे ।
तात्पर्य यह हआ कि जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकले हुए वचन पूर्वापर विरोध रहित हैं, निर्दोष हैं अतः वे ही "आगम'' हैं। उसमें कहे गये विषय
"तत्त्वार्थ" हैं । ऐसा श्रद्धान करते हुए भव्य जीवों को सकल विमल केवलज्ञान के लिए बीज भूत, अपने आत्मा के अभिमुख हुए अनुभव स्वरूप जो भावश्रुत है उसी को उपादेय करके द्रव्यश्रुत के आधार से निजशुद्ध परमात्म तत्त्व की सतत भावना करनी चाहिये।
वे तत्त्वार्थ कौन-कौन हैं ? और उसका स्वरूप क्या है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं
अन्वयार्थ-(जीवा पोग्गलकाया धम्माघम्मा य काल आयासं तच्चत्या इदि भणिदा) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ कहे गये हैं । (णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता) ये नाना गुण पर्यायों से संयुक्त हैं ।।९।। १. सर्वार्थसिटि अ० १, सूत्र २ । . . . . . . . . .