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नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा--अथिनो यदर्थ केवन्ते बाह्याभ्यन्तरचारित्रं सेवन्ते तत्केवलम् । उक्तं च श्रीभट्टाकलङ्कदेवै:--
'तपःक्रियाविशेषान वाङ्मानसकायाश्रयान् बाहानाभ्यन्तरांश्च यदर्थमथिन: केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् ।
तथा च एतत्स्वभावज्ञानं इन्द्रियरहितमतीन्द्रियमिन्द्रियानिन्द्रियव्यापारानपेक्षम् । इन्द्रियज्ञानं तावदाकाशाद्यमूर्तपदार्थेषु देशान्तरितमे लिए कालान्तरितामरावणादिषु स्वभावान्तरितभूतादिषु तथैवातिसूक्ष्मेषु परचेतोवृत्तिपुद्गलपरमाण्वादिषु च न प्रवर्तते । किं च इन्द्रियाणि स्थूलमूर्तमर्यादितवर्तमानकालिकस्वस्वविषयान् एव गृल्लन्ति । किन्तु अतीन्द्रियज्ञानं त्रैलोक्योदरतिस्थूलसूक्ष्ममूर्तामानन्तपवान् त्रिकालजातान् सर्वानपि युगपवेव जानाति, क्रमकरणव्यवधानरहितत्वात् ।
इसी का विस्तार--अर्थीजन जिसलिए बाह्य-आभ्यंतर चारित्र का सेवन करते हैं—आचरण करते हैं वह केवलज्ञान है।
श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है--
इच्छा रखने वाले जिसके लिए वचन मन और काय के आश्रित, बाह्यआभ्यन्तर ऐसी उभयरूप जिन तपश्चरण की क्रियाओं का सेवन करते हैं, उसी का नाम केवलज्ञान है।
यह स्वभावज्ञान इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय है, क्योंकि यह इद्रिय और मन के व्यापार से रहित है। यह इंद्रियज्ञान आकाश आदि अमूर्त पदार्थों में, देश से जिसमें व्यवधान है ऐसे अर्थात् अतिदूरवर्ती मेरुपर्वत आदि में, काल से जिसमें अन्तरल पड़ चुका है ऐसे अतीत और अनागत कालवर्ती राम-रावण, महापद्म तीर्थकर आदि में, स्वभाव से अन्तरित-नहीं दिखने वाले ऐसे भूत पिशाच आदि में, और उसी प्रकार अतिसूक्ष्म पर के मन की प्रवृत्ति, पुद्गल-परमाणु आदि विषयों में प्रवृत्ति नहीं कर सकता हैं। दूसरी बात यह है कि ये इन्द्रियाँ स्थूल, मूर्तिक, मर्यादित और वर्तमान काल के अपने-अपने विषयों को ही ग्रहण करती हैं । किंतु अतींद्रिय ज्ञान तीन लोक के अन्तर्गत स्थूल, सूक्ष्म, मूर्तिक, अमूर्तिक, अनन्त पदार्थों को तथा भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालीन सभी पदार्थों को भी एक साथ ही जान लेता है, क्योंकि उसमें क्रम का व्यवधान और इन्द्रियों का व्यवधान नहीं है । १. तस्वार्थराजबात्तिक अ० १, सूत्र ९ ॥