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नियमसार - प्राभृतम्
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धातीति धर्मः । तद्विपरीतोऽधर्मः । आकाशन्ते प्रकाशन्ते यस्मिन् ब्रव्याणि तदाकाशम्; अवकाशदानाद्वा । कलयतीति कालः ।
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इमे तत्त्वार्थं नानागुणपर्यायसंयुक्ता भवन्ति । " गुणपर्ययथद् द्रव्यमिति" न्यायेन । गुण्यते विशिष्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं येस्ते गुणाः । स्वभावविभावरूपतया परि-समंतात् परिगच्छन्ति परिप्राप्नुवन्ति ये ते पर्यायाः । अन्वयिनो गुणाः, व्यतिरेकिणः पर्यायाः, अथवा सहभुवो गुणाः प्रभुः पर्यायाः । श्रीदुद्गलयोः गुणपर्यायाः स्वभावविभावभेदात् द्विधा भवन्ति, अन्येषां द्रव्याणां च विभावगुणपर्याया न सन्ति । जीवतत्त्वस्य चेतनगुणपर्यायाः, अजीवतत्त्वस्याचेतन गुणपर्यायाः । षडपि तत्त्वार्थाः स्वस्वगुणपर्यायैः संयुक्ताः तेषामाधारभूतास्तत्स्वरूपा एव । न ते स्वगुणपर्यायान मुञ्चन्ति न च परगुणपर्यायान् गह्णन्ति ।
है, वह अधर्म द्रव्य है । जिसमें द्रव्य अवकाश पाते हैं- प्रकाशित होते हैं वह आकाश द्रव्य है । जो गणना कराता है वह काल द्रव्य है । इस प्रकार यहाँ पर व्याकरण से व्युत्पत्ति की अपेक्षा रखते हुए मुद्गल आदि द्रव्यों का यह अर्थ किया गया है ।
ये सभी तत्त्वार्थ नाना गुण पर्यायों से युक्त हैं। क्योंकि " गुणपर्यायों के समूह" का नाम द्रव्य हैं । यह द्रव्य का लक्षण सूत्र में कथित है । जिनके द्वारा द्रव्य विशिष्ट किया जाय, अन्य द्रव्यों से पृथक् किया जाय उन्हें गुण कहते हैं । जो स्वभाव-विभावरूप से सब तरफ से प्राप्त करते हैं वे पर्यायें हैं, यह व्युत्पत्ति
अर्थ हैं !
अन्वयी गुण हैं और व्यतिरेकी पर्यायें हैं । अथवा जो सदा साथ-साथ रहते हैं वे गुण हैं और जो क्रम क्रम से होती हैं वे पर्यायें हैं । जोव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में जो गुण पर्यायें हैं वे स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेदरूप हैं । अन्य द्रव्यों में विभाव गुण पर्यायें नहीं हैं । जीव तत्त्व की गुण- पर्यायें चेतन हैं और अजीवतत्व की अचेतन गुण पर्यायें हैं । ये छहों ही तत्त्वार्थं अपने अपने गुण पर्यायों से संयुक्त हैं, उनकी आधारभूत हैं । अथवा उन गुणपर्यायस्वरूप ही हैं । ये न तो अपने गुण पर्यायों को छोड़ते हैं और न परके गुण पर्यायों को ग्रहण ही करते हैं ।
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