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नियमसार-प्राभृतम् पूर्वापरदोषरहितत्वात् इति हेतोः । पूर्व यद्वाक्यं यच्च अपरं तयोर्दोषो विरोधस्तेन रहितस्तस्मात् । ननु एष दोषः कस्मिरिचदागमें वर्तते ? अथ किम्, सर्वोद्भासिस्थास्पदमुद्राङ्कित आगमे वर्तत एव । उक्तं च न्यायकुमुवचन्द्रे
"न हिंस्यात् सर्वभूतानि" इति एवं वाक्यं पुन:-~
"यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।" इति हिंसाप्रधानवाक्यं तेषामेव शास्त्र । तथैव एकत्र तीर्थस्नानफलमन्यत्र निषेधश्च वृश्यते । यथा
"गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते । स्मात्या कनखले तीयें संभवेन्न पुनर्भवे ॥ तुष्टमन्तर्गतं चिसं तीर्थस्नानान्न शुधति ।
शतशोऽपि जलोतं सुराभाण्डमिवाशुधि ।" शंका--तो क्या यह पूर्वापर विरोध दोष किसी आगम में है ?
समाधान- हां, जो सर्व को प्रकाशित करने वाले 'स्यात्पद' मुद्रा से चिह्नित नहीं हैं ऐसे शास्त्रों में यह दोष पाया जाता है।
न्यायकुमुदचन्द्र में कहा भी है
किसी शास्त्र में एक जगह कहा है कि "सभी जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए।"पुनः उसी में आगे कहा है कि "स्वयं ही विधाता ने यज्ञ के लिए पशुओं को बनाया है।" इस प्रकार एक ही शास्त्र में पहले हिंसा के निषेध का कथन है पुनः उसी में हिंसा को करने का कथन है। उसी प्रकार से किसी शास्त्र में एक जगह तीर्थस्नान का फल दिखलाया है और उसी में तीर्थस्नान का निषेध भी किया है। जैसे
गंगाद्वार में, कुशावर्त में, विल्वक में नील पर्वत के तीर्थ मे और कनखल तीर्थ में स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता है। पुनः लिखते हैं---जिनका अंतरंग मन दुष्ट है वह तीर्थस्नान से शुद्ध नहीं होता है जैसे शराब के भांड को सैकड़ों बार भी जल से धोने पर वह पवित्र नहीं होता है।
१. न्यायकुमुदचन्त, पृष्ठ ६३४ । २. मनुस्मृति, ५:३९ ३. न्यायकुमुदषात ४. जाबाल, ४/५४