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नियमसार-प्रामृतम् किश्च द्विविधः परमात्मा सकलो निष्कलश्च । यद्वा कारण कार्यभेदेनापि विविध:- शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धामज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मा कारणपरमात्मा । तदाधारण. समुत्पन्नसकलबिमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपः कार्यपरमात्मा . इति । व्यक्तरूपेण केवलिनो भगवन्तः परमात्मानः शक्तिरूपेण शुद्ध निश्चयनयेन वा सर्वेषां संसारिणां देहदेवालयेषु य आत्मानः ते भगवन्तः परमात्मानः एव।
तात्पर्यमेतत्--यः सर्वदोषरहितः सर्वगुणसहितश्च स एव परमात्मा न च तस्माद्भिन्न इति मत्वा तं परमात्मानं निजमनोमन्दिरे संस्थाप्य तस्य प्रसादात् निजदेहदेवालये स्थितो भगवान् आत्माऽपि तत्वज्ञानचक्षुषा द्रष्टव्यः श्रद्धातव्योऽनुमन्तव्य उपासनीयत ।
दूसरी बात यह है कि परमात्मा के सकल और निष्कल ऐसे दो भेद हैं । अथवा 'कारण परमात्मा' और 'कार्य परमात्मा' से भी दो भेद हैं 1 इनमें से अहंत परमेष्ठी सकल परमात्मा हैं और सिद्ध परमेष्ठी निष्कल--शरीर रहित परमात्मा हैं।
शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन जो निज परमात्म तत्त्व है उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में आचरण रूप चारित्र-ये 'निश्चय रत्नत्रय' है, इनसे परिणत हुई आत्मा 'कारण परमात्मा' है । इस कारण परमात्मा' के आधार से उत्पन्न हुए सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य स्वरूप 'कार्य परमात्मा' हैं । अथवा प्रगट रूप से केवली भगवान् परमात्मा हैं और शक्ति रूप से या शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीवों के देहरूपी देवालयों में जो आत्माएँ हैं वे सब भगवान परमात्मा हो हैं ।
तात्पर्य यह निकला-जो सर्व दोषों से रहित और सर्वगुणों से सहित हैं वही परमात्मा है उससे भिन्न नहीं, ऐसा मानकर उन परमात्मा को अपने मन मंदिर में स्थापित करके उनके प्रसाद से निज देहरूपी देवालय में स्थित भगवान् आत्मा को भी तत्त्वज्ञानरूपी नेत्र से देखना चाहिए, उस पर श्रद्धान करना चाहिए, उसका अनुचिंतन करना चाहिए और उसकी उपासना भी करनी चाहिए ।