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नियमसार-भाभृतम् ज्ञानाविपरमविभवयुतः केवलज्ञानमादौ येषां ते केवलज्ञानादयस्ते च परमाः सर्वोत्कृष्टाश्च विभवा गुणविभूतयस्तैर्युतः । स को नामधेयः ? सो परमप्पा उच्चइसः परमात्मा उच्यते परमश्चासौ आत्मा परमात्मा इति कथ्यते । यश्च तविबरीओतद्विपरीतः सर्वोषसहितः कैवलशानागरहितश्च सः परमप्पा ण-परमात्मा न कथ्यते । कः ? गणधरवेवादिभिः इति।।
इतो विस्तर:- कोऽपि महामुनिः क्षपकणिमाछा सूक्ष्मसापरायगुणस्थाने 'अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान् मोहमयः' इति वचनात् मोहनीयकर्मशत्रु निपात्य योतरागो भूत्वा क्षीणकषायान्त्यसमये शानावरणाविकर्माणि हत्वा केवलज्ञानं समुत्पाय केवली भवति स एव नवकेवललब्धिरमापतिभंगवान् अर्हन् कलया परमोदारिफशरीरेण सहितत्वात् सकलपरमात्मा इति गीयते । तस्मात् विपरीता ये हरिहरब्रहाबुद्धादयोऽथवा देवगतिनामकर्मोक्यसमुद्भूताश्चतुर्णिफायदेवाश्चतुर्गतिभ्रमणकर्तारो भविनो या परमात्मसंज्ञां लब्धं नाहन्तीत्यर्थः । परमात्मा कहलाते हैं। इनसे विपरीत-जन्ममरण आदि सर्व दोषों से सहित और केवलज्ञान आदि गुणों से रहित परमात्मा नहीं कहला सकते, ऐसा श्री गणधर देव आदि ने कहा है।
अब इसका विस्तार करते हैं--
कोई भी महामुनि क्षपक श्रेणी में आरोहण करके सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में 'अनंत दोषों के स्थानरूप शरीर को धारण करने वाला, जो दुःखदायी मोहमयी एक ग्रह है अथवा ग्रह के सदृश जो मोह है' उस मोह को-मोहनीय-कर्मरूप शत्रु को नष्ट करके वीतराग हो गए। पुनः क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को उत्पन्न कर केवली हो जाते हैं। वे ही नवकेवललब्धि रूपी रमणी के स्वामी अर्हत भगवान् कला अर्थात् परमौदारिक शरीर से सहित होने से सकल परमात्मा कहलाते हैं। इनसे अतिरिक्त जो हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध आदि हैं अथवा देव गति नामकर्म के उदय से देवों में उत्पन्न हुए भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक ये चार प्रकार के जो देव हैं, अथवा जो चारों गति में भ्रमण करने वाले संसारी हैं वे परमात्मा इस नाम को प्राप्त करने योग्य नहीं हैं ऐसा समझना । १. स्वयंभूस्तोत्रे, अनम्तनाथस्तुति ।