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नियमसार-प्राभृतम् तथा च अमी सर्वे दोषा व्यक्तरूपेण षष्ठगणस्थानपर्यन्तं सप्तमाघेकादशमपर्यन्तमव्यक्तरूपेण सत्वरूपेण था सन्ति न च ततः परम । यथा सयोगकेवली भगवान् एभिर्दोषविमुक्तः सन् निर्दोष आप्त इति गोयते, तथा सम्यादृष्टिभिरपि निश्चयनयेन स्वस्यात्मा निर्दोष इति चिन्तनीयोः व्यवहारनयावलम्बनेन च सर्वेषां दोषाणां रागद्वेषमोहा एव मूलकारणम इति मत्वा सम्यकत्रद्धानेन वीतरागपरमानन्दपीयूष पिपासाभावनां भावद्भिः यथायोग्यं चारित्रमादाय रागादयः परिहरणीयाः ॥६॥ अष्टादशदोषरहितो यः कश्चिदाप्तस्तस्य कि नाम ? इति उच्यते भगवद्भिः
णिस्सेसदोसरहिओ, केवलगाणाइपरम विभवज़दो।
सो परमप्पा उच्चइ, तविवरीओ ण परमप्या ॥७॥
यः कश्चिवारमा णिस्सेसदोसरहिओ-निःशेषदोषरहितः अष्टादशदोषान्तगतानन्तदोषास्तेभ्यः शून्यः । पुनश्च फयम्भूतः ? केवलणाणाइपरमविभवजुदो केवल
जिस प्रकार सयोगी केवली गुणस्थान में अहंत भगवान् इन दोषों से रहित होते हुए निर्दोष 'माप्त' कहलाते हैं, उसी प्रकार से सम्यग्दृष्टी श्रावकों-मुनियों को भी 'निश्चयनय से मेरा आत्मा निर्दोष है' ऐसा चितवन करते रहना चाहिए और व्यवहारनय का अवलंबन लेकर ऐसा मानना चाहिए कि इन अठारहों दोषों के मुलकारण राग, द्वेष और मोह ये तीन दोष ही हैं। पुनः ऐसा मान करके सम्यक श्रद्धानपूर्वक वीतराग परमानंद अमृत को पीने की इच्छा रूप भावना को भाते हुए अपनी योग्यता के अनुसार चारित्र को ग्रहण करके रागादि दोषों का परिहार करना चाहिए।
अठारह दोष रहित जो कोई आप्त हैं, उनका क्या नाम है ? सो ही भगवान् कुन्दकुन्ददेव कहते हैं
अन्वयार्थ--(णिस्सेसदोसरहिओ) जो संपूर्ण दोषों से रहित हैं, (केवलणाणाइपरमविभवजुदो) केवलज्ञान आदि परम वैभव से सहित हैं, (सो परमप्पा उच्चइ) वे परमात्मा कहलाते हैं (तविवरीओ परमप्पा ण), इनसे विपरीत परमात्मा नहीं है।
जो कोई अठारह दोषों के अंतर्गत अनन्त दोषों से शून्य हैं और केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि सर्वोत्कृष्ट संपूर्ण गुणरूपी वैभव से सहित हैं, वे परम आत्मा,