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नियमसार-प्राभूतम् रायकेषु आचार्योपाध्यायसाधुषु परम्पराकारणेन चतुर्थपञ्चमगुणस्थानतिष्वपि आप्तो विराजते इति विज्ञेयः।
तात्पर्यमेतत् --आप्तादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् । आप्तश्च दोषैर्मुक्तो गुणैयुक्तः, तमेवाप्तमुपादेयं कृत्वा शक्तिरूपेण स्वस्थात्मानमपि तत्सदृशं मत्वा तावश्यमाप्त आराधनीयो यावदात्माप्तो न भवेत् ॥५॥
अप गतदोष आप्त इति कथितस्तहि के ते दोषा यम्यः स व्यपगतः, इत्याशङ्कायां ब्रुवन्त्याचार्याःछुतण्हभीरूरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । सेदं खेद मदो रइ, बिम्हिय णिहा जणुव्वेगो ॥६॥
छुहताहभीरूरोसो रागो मोहो चिता रुजा मिच्चू सेदं खेद मदो रइ बिम्हिय गिद्दा जणुन्वेगो-क्षुधातृषाभयरोषरागमोहचिंताजरारुजामृत्युस्वेदखेदमवरतिचाहिये, क्योंकि आप्तस्वरूप से अपनी आत्मा साध्य है और ये आप्तदेव साधनभूत हैं, अतः साधन के अवलम्बन से ही साध्य को सिद्ध करना चाहिये ।
गुणस्थान की विवक्षा में व्यक्तरूप से आप्त तेरहवें गुणस्थान में हैं और शक्तिरूप से सभी संसारी जोवों में हैं। बह आप्त कारण रूप से अभेदरत्नत्रय से परिणत शुद्धोपयोगी मुनियों में है, कारण कारणरूप से भेदरलय के आराधक आचार्य, उपाध्याय साधुओं में हैं और परंपरा कारणरूप से चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवती गृहस्थों में भी विराजमान हैं, ऐसा जानना चाहिये ।
तात्पर्य यह निकला कि आप्त आदि का श्रद्धान सम्यक्त्व है और आप्त दोषों से रहित, गुणों से सहित हैं। उन्हीं आप्त को उपादेय करके शक्तिरूप से अपनी आत्मा को भी उनके सदृश मानकर तब तक इन आप्त की आराधना करनी चाहिये जब तक कि यह अपनी आत्मा आप्त न हो जावें ।
'दोषरहित आप्त हैं' ऐसा कहने पर वे दोष कौन से हैं, जिनसे रहित वे आप्त हैं, ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ—(छुहताहभीरूरोसो) भूख, प्यास, भय, कोष, (रोगो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू) राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, (सेदं खेद मदो रह